'अगर धन मेरे जीवन का आदर्श होता, तो आज मैं इस दशा में न होता। मुझे भी धन कमाने की कला आती है। आज चाहूं, तो लाखों कमा सकता हूं, लेकिन यहां तो धन को कभी कुछ समझा ही नहीं। साहित्य की सेवा अपने जीवन का ध्येय है और रहेगा।'
'कम-से-कम मेरा नाम तो ग्राहकों में लिखवा दीजिए।'
'आपका नाम ग्राहकों में नहीं, संरक्षकों में लिखूंगा।'
'संरक्षकों में रानियों-महारानियों को रखिए, जिनकी थोड़ी-सी खुशामद करके आप अपने पत्र को लाभ की चीज बना सकते हैं।
'मेरी रानी-महारानी आप हैं। मैं तो आपके सामने किसी रानी-महारानी की हकीकत नहीं समझता। जिसमें दया और विवेक है, वही मेरी रानी है। खुशामद से मुझे घृणा है।'
कामिनी ने चुटकी ली-लेकिन मेरी खुशामद तो आप कर रहे हैं संपादकजी ।
संपादकजी ने गंभीर होकर श्रद्धापूर्ण स्वर में कहा-यह खुशामद नहीं है देवीजी, हृदय के सच्चे उद्गार हैं।
रायसाहब ने पुकारा-संपादकजी, जरा इधर आइएगा। मिस मालती आपसे कुछ कहना चाहती हैं।
संपादकजी की वह सारी अकड़ गायब हो गई। नम्रता और विनय की मूर्ति बने हुए आकर खड़े हो गए। मालती ने उन्हें सदय नेत्रों से देखकर कहा-मैं अभी कह रही थी कि दुनिया में मुझे सबसे ज्यादा डर संपादकों से लगता है। आप लोग जिसे चाहें, एक क्षण में बिगाड़ दें। मुझी से चीफ सेक्रेटरी साहब ने एक बार कहा-अगर मैं इस ब्लडी ओंकारनाथ को जेल में बंद कर सकू, तो अपने को भाग्यवान समझूं।
ओंकारनाथ की बड़ी-बड़ी मूछें खड़ी हो गईं। आंखों में गर्व की ज्योति चमक उठी। यों वह बहुत ही शांत प्रकृति के आदमी थे, लेकिन ललकार सुनकर उनका पुरुषत्व उत्तेजित हो जाता था। दृढ़ता-भरे स्वर में बोले-इस कृपा के लिए आपका कृतज्ञ हूं। उस बज्म(सभा) में अपना जिक्र तो आता है, चाहे किसी तरह आए। आप सेक्रेटरी महोदय से कह दीजिएगा कि ओंकारनाथ उन आदमियों में नहीं है, जो इन धमकियों से डर जाय। उसकी कलम उसी वक्त विश्राम लेगी, जब उसकी जीवन-यात्रा समाप्त हो जायगी। उसने अनीति और स्वेच्छाचार को जड़ से खोदकर फेंक देने का जिम्मा लिया है।
मिस मालती ने और उकसाया मगर मेरी समझ में आपकी यह नीति नहीं आती कि जब आप मामूली शिष्टाचार से अधिकारियों का सहयोग प्राप्त कर सकते हैं, तो क्यों उनसे कन्नी काटते हैं। अगर आप अपनी आलोचनाओं में आग और विष जरा कम दें, तो मैं वादा करती हूं कि आपको गवर्नमेंट से काफी मदद दिला सकती हूं। जनता को तो आपने देख लिया। उससे अपील की, उसकी खुशामद की, अपनी कठिनाइयों की कथा कही, मगर कोई नतीजा न निकला। अब जरा अधिकारियों को भी आजमा देखिएतीसरे महीने आप मोटर पर न निकलने लगेंऔर सरकारी दावतों में निमत्रित न होने लगें तो मुझे जितना चाहें कोसिएगा। तब यही रईस और नेशनलिस्ट जो आपकी परवा नहीं करते, आपके द्वार के चक्कर लगाएंगे।
ओंकारनाथ अभिमान के साथ बोले-यही तो मैं नहीं कर सकता देवीजी । मैंने अपने सिद्धांतों को सदैव ऊंचा और पवित्र रखा है और जीते-जी उनकी रक्षा करूंगा। दौलत के पुजारी