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गोदान : 77
 

'खाल जाय भाड़ में। मैं अब तुमसे बात न करूंगी।'

'कहीं हम लोगों के हाथ कुछ न लगा और दूसरों ने अच्छे शिकार मारे तो मुझे बड़ी झेंप होगी।'

एक चौड़ा नाला मुंह फैलाए बीच में खड़ा था। बीच की चट्टानें उसके दांतों-सी लगती थीं। धार में इतना वेग था कि लहरें उछली पड़ती थीं। सूर्य मध्याह्न पर आ पहुंचा था और उसकी प्यासी किरणें जल में क्रीड़ा कर रही थीं।

मालती ने प्रसन्न होकर कहा-अब तो लौटना पड़ा।

'क्यों? उस पार चलेंगे। यहीं तो शिकार मिलेंगे।'

'धारा में कितना वेगन है। मैं तो बह जाऊंगी।'

'अच्छी बात है। तुम यहीं बैठो, मैं जाता हूं।'

'हां, आप जाइए। मुझे अपनी जान से बैर नहीं है।'

मेहता ने पानी में कदम रखा और पांव साधते हुए चले। ज्यों-ज्यों आगे जाते थे, पानी गहरा होता जाता था। यहां तक कि छाती तक आ गया।

मालती अधीर हो उठी। शंका से मन चंचल हो उठा। ऐसी विकलता तो उसे कभी न होती थी। ऊंचे स्वर में बोली-पानी गहरा है। ठहर जाओ, मैं भी आती हूं।

'नहीं-नहीं, तुम फिसल जाओगी। धार तेज है।'

'कोई हरज नहीं, मैं आ रही हूं। आगे न बढ़ना, खबरदार।'

मालती साड़ी ऊपर चढ़ाकर नाले में पैठी। मगर दस हाथ आते-आते पानी उसकी कमर तक आ गया ।

मेहता घबड़ाए। दोनों हाथ से उसे लौट जाने को कहते हुए बोले-तुम यहां मत आओ मालती। यहां तुम्हारी गर्दन तक पानी है।

मालती ने एक कदम और आगे बढ़कर कहा—होने दो। तुम्हारी यही इच्छा है कि मैं मर जाऊं तो तुम्हारे पास ही मरूंगी।

मालती पेट तक पानी में थी। धार इतनी तेज थी कि मालूम होता था, कदम उखड़ा। मेहता लौट पड़े और मालती को एक हाथ से पकड़ लिया।

मालती ने नशीली आखों में रोष भरकर कहा-मैंने तुम्हारे-जैसा बेदर्द आदमी कभी न देखा था। बिल्कुल पत्थर हो। खैर, आज सता लो, जितना सताते बने, मैं भी कभी समझूंगी।

मालती के पांव उखड़ते हुए मालूम हुए। वह बंदूक संभालती हुई उनसे चिमट गई।

मेहता ने आश्वासन देते हुए कहा-तुम यहां खड़ी नहीं रह सकतीं। मैं तुम्हें अपने कंधे पर बिठाए लेता हूं।

मालती ने भृकुटी टेढ़ी करके कहा-तो उस पार जाना क्या इतना जरूरी है?

मेहता ने कुछ उत्तर न दिया। बंदूक कनपटी से कंधे पर दबा ली और मालती को दोनों हाथों से उठाकर कंधे पर बैठा लिया।

मालती अपनी पुलक को छिपाती हुई बोली-अगर कोई देख ले?

'भद्दा तो लगता है।'

दो पग के बाद उसने करुण स्वर में कहा-अच्छा बताओ, मैं यहीं पानी में डूब जाऊं,