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78 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


तो तुम्हें रंज हो या न हो? मैं तो समझती हूं, तुम्हें बिल्कुल रंज न होगा।

मेहता ने आहत स्वर से कहा-तुम समझती हो, मैं आदमी नहीं हूं?

‘मैं तो यही समझती हूं, क्यों छिपाऊं।'

'सच कहती हो मालती?'

'तुम क्या समझते हो?'

'मैं। कभी बतलाऊंगा।'

पानी मेहता की गर्दन तक आ गया। कहीं अगला कदम उठाते ही सिर तक न आ जाय। मालती का हृदय धक्-धक करने लगा। बोली-मेहता, ईश्वर के लिए अब आगे मत जाओ, नहीं, मैं पानी में कूद पड़ूंगी।

उस संकट में पालती को ईश्वर याद आया, जिसका वह मजाक उड़ाया करती थी। जानती थी, ईश्वर कहीं बैठा नहीं है, जो आकर उन्हें उबार लेगा, लेकिन मन को जिस अवलब और शक्ति की जरूरत थी, वह और कहां मिल सकती थी?

पानी कम होने लगा था। मालती ने प्रसन्न होकर कहा-अब तुम मुझे उतार दो।

'नहीं-नहीं, चुपचाप बैठी रहो। कहीं आगे कोई गढ़ा मिल जाय।'

'तुम समझते होगे, यह कितनी स्वार्थिन है।'

'मुझे इसकी मजदूरी दे देना।'

मालती के मन में गुदगुदी हुई।

'क्या मजदूरी लोगे?'

'यही कि जब तुम्हें जीवन में ऐसा ही कोई अवसर आए, तो मुझे बुला लेना।'

किनारे आ गए। मालती ने रेत पर अपनी साड़ी का पानी निचोडा, जूते का पानी निकाला, मुह-हाथ धोया, पर ये शब्द अपने रहस्यमय आशय के साथ उसके सामने नाचते रहे?

उसने इस अनुभव का आनद उठाते हुए कहा-यह दिन याद रहेगा।

मेहता ने पूछा- तुम बहुत डर रही थीं?

'पहले तो डरी, लेकिन फिर मुझे विश्वास हो गया कि तुम हम दोनो की रक्षा कर सकते हो।'

मेहता ने गर्व से मालती को देखा-उनके मुख पर परिश्रम की लाली के साथ तेज था।

'मुझे यह सुनकर कितना आनंद आ रहा है, तुम यह समझ सकोगी मालती?'

'तुमने समझाया कब? उलटे और जंगलों में घसीटते फिरते हो, और अभी फिर लौटती बार यही नाला पार करना पड़ेगा। तुमने कैसी आफत में जान डाल दी। मुझे तुम्हारे साथ रहना पड़े, तो एक दिन न पटे।'

मेहता मुस्कराए। इन शब्दों का संकेत खूब समझ रहे थे।

'तुम मुझे इतना दुष्ट समझती हो और जो मैं कहूं कि मैं तुमसे प्रेम करता हूं, तो तुम मुझसे विवाह करोगी?'

'ऐसे काठ-कठोर से कौन विवाह करेगा। रात-दिन जलाकर मार डालोगे।'

और मधुर नेत्रों से देखा, मानो कह रही हो इसका आशय तुम खूब समझते हो। इतने बुद्धू नहीं हो।