युवती ने मीठी झिड़की के साथ कहा-तुम्हें कुछ नहीं करना है, जाकर बाई के पास बैठो। बेचारी बहुत भूखी है, दूध गरम हुआ जाता है, उसे पिला देना।
उसने एक बड़े से बरतन में आटा निकाला और गूंदने लगी। मेहता उसके अंगों का विलास देखते रहे। युवती भी रह-रहकर उन्हें कनखियों से देखकर अपना काम करने लगती थी।
मालती ने पुकारा-तुम वहां क्यों खड़े हो? मेरे सिर में जोर का दर्द हो रहा है। आधा सिर ऐसा फटा पड़ता है, जैसे गिर जायगा।
मेहता ने आकर कहा-मालूम होता है, धूप लग गई है।
'मैं क्या जानती थी, तुम मुझे मार डालने के लिए यहां ला रहे हो।'
'तुम्हारे साथ कोई दवा भी तो नहीं है?'
'क्या मैं किसी मरीज को देखने आ रही थी, जो दवा लेकर चलती? मेरा एक दवाओं का बक्स है, वह सेमरी में है। उफ। सिर फटा जाता है।'
मेहता ने उसके सिर की ओर जमीन पर बैठकर धीरे-धीरे उसका सिर सहलाना शुरू किया। मालती ने आंखें बंद कर लीं।
युवती हाथों में आटा भरे, सिर के बाल बिखेरे, आंखें धुएं से लाल और सजल,सारी देह पसीने में तर, जिससे उसका उभरा हुआ वक्ष साफ झलक रहा था, आकर खड़ी हो गई और मालती को आंखें बंद किए पड़ी देखकर बोली-बाई को क्या हो गया है?
मेहता बोले-सिर में बड़ा दर्द है।
'पूरे सिर में है कि आधे में?'
'आधे में बतलाती हैं।
'दाईं ओर है, कि बाईं ओर?'
'बाईं ओर।'
'मैं अभी दौड़ के एक दवा लाती हूं। घिसकर लगाते ही अच्छा हो जायगा।'
'तुम इस धूप में कहां जाओगी?'
युवती ने सुना ही नहीं। वेग से एक ओर जाकर पहाड़ियों में छिप गई। कोई आधा घंटे बाद मेहता ने उसे ऊंची पहाड़ी पर चढ़ते देखा। दूर से बिल्कुल गुड़िया-सी लग रही थी। मन मे सोचा-इस जंगली छोकरी में सेवा का कितना भाव और कितना व्यावहारिक ज्ञान है। लू और धूप में आसमान पर चढ़ी चली जा रही है।
मालती ने आंखें खोलकर देखा-कहां गई वह कलूटी गजब की काली है, जैसे आबनूस का कुंदा हो। इसे भेज दो, रायसाहब से कह आए, कार यहां भेज दें। इस तपिश में मेरा दम निकल जायगा।
'कोई दवा लेने गई है। कहती है, उससे आधा सिर का दर्द बहुत जल्द आराम हो जाता है।'
'इनकी दवाएं इन्हीं को फायदा करती हैं, मुझे न करेंगी। तुम तो इस छोकरी पर लट्टू हो गए हो। कितने छिछोरे हो। जैसी रूह वैसे फरिश्ते।'
मेहता को कटु सत्य कहने में संकोच न होता था।
'कुछ बातें तो उसमें ऐसी हैं कि अगर तुममें होतीं, तो तुम सचमुच देवी हो जातीं।'
'उसकी खूबियां उसे मुबारक, मुझे देवी बनने की इच्छा नहीं।'