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गोदान : 89
 


में आमतौर पर होता है। दु:खी प्राणी को आत्मचिंतन में जो शांति मिलती है, उसके लिए वह भी लालायित रहते थे। जब आर्थिक कठिनाइयों से निराश हो जाते, मन में आता, संसार से मुंह मोड़कर एकांत में जा बैठें और मोक्ष की चिंता करें। संसार के बंधनों को वह भी साधारण मनुष्यों की भांति आत्मोन्नति के मार्ग की बाधाएं समझते थे और इनसे दूर हो जाना ही उनके जीवन का भी आदर्श था, लेकिन संन्यास और त्याग के बिना बंधनों को तोड़ने का और क्या उपाय है?

'लेकिन जब वह संन्यास को ढ़ोंग कहते हैं, तो खुद क्यों संन्यास लिया है?'

'उन्होंने संन्यास कब लिया है साहब, वह तो कहते हैं-आदमी को अंत तक काम करते रहना चाहिए। विचार-स्वातंत्र्य उनके उपदेशों का तत्त्व है।'

'मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। विचार-स्वातंत्र्य का आशय क्या है?'

'समझ में तो मेरे भी कुछ नहीं आया, अबकी आइए, तो उनसे बातें हों। वह प्रेम को जीवन का सत्य कहते हैं। और इसकी ऐसी सुंदर व्याख्या करते हैं कि मन मुग्ध हो जाता है।'

'मिस मालती को उनसे मिलाया या नहीं?'

'आप भी दिल्लगी करते हैं। मालती को भला इनसे क्या मिलाता....

वाक्य पूरा न हुआ था कि सामने झाड़ी में सरसराहट की आवाज सुनकर चौंक पड़े और प्राण-रक्षा की प्रेरणा से रायसाहब के पीछे आ गए। झाड़ी में से एक तेंदुआ निकला और मंद गति से सामने की ओर चला।

रायसाहब ने बंदूक उठाई और निशाना बांधना चाहते थे कि खन्ना ने कहा-यह क्या करते हैं आप? ख्वाहमख्वाह उसे छेड़ रहे हैं, कहीं लौट पड़े तो ?

'लौट क्या पड़ेगा, वहीं ढेर हो जायगा।'

'तो मुझे उस टीले पर चढ़ जाने दीजिए। मैं शिकार का ऐसा शौकीन नहीं हूं।'

'तब क्या शिकार खेलने चले थे?'

'शामत और क्या।'

रायसाहब ने बंदूक नीचे कर ली।

'बड़ा अच्छा शिकार निकल गया। ऐसे अवसर कम मिलते हैं।'

'मैं तो अब यहां नहीं ठहर सकता। खतरनाक जगह है।'

'एकाध शिकार तो मार लेने दीजिए। खाली हाथ लौटते शर्म आती है।'

'आप मुझे कृपा करके कार के पास पहुंचा दीजिए, फिर चाहे तेंदुए का शिकार कीजिए या चीते का।'

'आप बड़े डरपोक हैं मिस्टर खन्ना, सच।'

'व्यर्थ में अपनी जान खतरे में डालना बहादुरी नहीं है ।'

'अच्छा तो आप खुशी से लौट सकते हैं।'

'अकेला?'

'रास्ता बिल्कुल साफ है।'

'जी नहीं। आपको मेरे साथ चलना पड़ेगा?'

रायसाहब ने बहुत समझाया, मगर खन्ना ने एक न मानी। मारे भय के उनका चेहरा पीला पड़ गया था। उस वक्त अगर झाड़ी में से एक गिलहरी भी निकल आती, तो वह चीख मारकर