गिर पड़ते। बोटी-बोटी कांप रही थी। पसीने से तर हो गए थे। रायसाहब को लाचार होकर उनके साथ लौटना पड़ा।
जब दोनों आदमी बड़ी दूर निकल आए, तो खन्ना के होश ठिकाने आए।
बोले-खतरे से नहीं डरता, लेकिन खतरे के मुंह में उंगली डालना हिमाकत है।
'अजी, जाओ भी। जरा-सा तेंदुआ देख लिया, तो जान निकल गई।'
'मैं शिकार खेलना उस जमाने का संस्कार समझता हूं, जब आदमी पशु था। तब से संस्कृति बहुत आगे बढ़ गई है।'
'मैं मिस मालती से आपकी कलई खोलूंगा।'
'मैं अहिंसावादी होना लज्जा की बात नहीं समझता।'
'अच्छा, तो यह आपका अहिंसावाद था। शाबाश।'
खन्ना ने गर्व से कहा-जी हां, यह मेरा अहिंसावाद था। आप बुद्ध और शंकर के नाम पर गर्व करते हैं और पशुओं की हत्या करते हैं, लज्जा आपको आनी चाहिए, न कि मुझे।
कुछ दूर दोनों फिर चुपचाप चलते रहे। तब खन्ना बोले-तो आप कब तक आयेंगे? मैं चाहता हूं, आप पालिसी का फार्म आज ही भर दें और शक्कर के हिस्सों का भी। मेरे पास दोनों फार्म भी मौजूद हैं।
रायसाहब ने चिंतित स्वर में कहा-जरा सोच लेने दीजिए
'इसमें सोचने की जरूरत नहीं।'
तीसरी टोली मिर्जा खुर्शेद और मिस्टर तंखा की थी। मिर्जा खुर्शेद के लिए भूत और भविष्य सादे कागज की भांति था। वह वर्तमान में रहते थे। न भूत का पछतावा था, न भविष्य की चिंता। जो कुछ सामने आ जाता था, उसमें जी-जान से लग जाते थे। मित्रों की मंडली में वह विनोद के पुतले थे। कौंसिल में उनसे ज्यादा उत्साही मेंबर कोई न था। जिस प्रश्न के पीछे पड़ जाते, मिनिस्टरों को रुला देते। किसी के साथ रू-रियायत करना जानते थे। बीच-बीच में परिहास भी करते जाते थे। उनके लिए आज जीवन था, कल का पता नहीं। गुस्सेवर भी ऐसे थे कि ताल ठोंककर सामने आ जाते थे। नम्रता के सामने दंडवत करते थे, लेकिन जहां किसी नेशान दिखाई और यह हाथ धोकर उसके पीछे पड़े। न अपना लेना याद रखते थे, न दूसरों का देना। शौक था शायरी का और शराब का। औरत केवल मनोरंजन की वस्तु थी। बहुत दिन हुए हृदय का दिवाला निकाल चुके थे।
मिस्टर तंखा दांव-पेंच के आदमी थे, सौदा पटाने में, मुआमला सुलझाने में, अडंगा लगाने में, बालू से तेल निकालने में, गला दबाने में, दुम झाड़कर निकल जाने में बड़े सिद्धहस्त। कहिए रेत में नाव चला दें, पत्थर पर दूब उगा दें। ताल्लुकेदारों को महाजनों से कर्ज दिलाना, नई कंपनियां खोलना, चुनाव के अवसर पर उम्मेदवार खड़े करना, यही उनका व्यवसाय था। खासकर चुनाव के समय उनकी तकदीर चमकती थी। किसी पोढ़े उम्मेदवार को खड़ा करते, दिलोजान से उसका काम करते और दस-बीस हजार बना लेते। जब कांग्रेस का जोर था, तो कांग्रेस के उम्मेदवार के सहायक थे। जब सांप्रदायिक दल का जोर हुआ, तो हिन्दूसभा की ओर से काम करने लगे,