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गोदान : 93
 

गोदान : 93 तंखा ने मिर्जा को कौतूहल की दृष्टि से देखा और बोले-आप अपने होश में हैं या नहीं? 'कह नहीं सकता। मुझे खुद नहीं मालूम।' 'शिकार इसे क्यों दे दिया?' 'इसलिए कि उसे पाकर इसे जितनी खुशी होगी, मुझे या आपको न होगी।' तखा खिसियाकर बोले-जाइए। सोचा था,खूब कबाब उड़ाएंगे,सो आपने सारा मजा किरकिरा कर दिया। खैर, रायसाहब और मेहता कुछ न कुछ लाएंगे ही। कोई गम नहीं। मैं इस इलेक्शन के बारे में कुछ अर्ज करना चाहता हूं। आप नहीं खड़ा होना चाहते न सही, आपकी जैसी मर्जी, लेकिन आपको इसमें क्या ताम्मुल है कि जो लोग खड़े हो रहे हैं, उनसे इसकी अच्छी कीमत वसूल की जाय। मैं आपसे सिर्फ इतना चाहता हूं कि आप किसी पर यह भेद ने खुलने दें कि आप नहीं खड़े हो रहे हैं। सिर्फ इतनी मेहरबानी कीजिए मेरे साथ ख्वाजा जमाल ताहिर इसी शहर से खड़े हो रहे हैं। रईसों के वोट तो सोलहों आने उनकी तरफ हैं ही, हुक्काम भी उनके मददगार हैं। फिर भी पब्लिक पर आपका जो असर है, इससे उनकी कोर दब रही है। आप चाहें तो आपको उनसे दस-बीस हजार रुपये महज यह जाहिर कर देने के मिल सकते हैं कि आप उनकी खातिर बैठ जाते हैं.... नहीं मुझे अर्ज कर लेने दीजिए। इस मुआमले में आपको कुछ नहीं करना है। आप बेफिक्र बैठे रहिए। मैं आपकी तरफसे एक मेनिफेस्टो निकाल दूंगा और उसी राम को आप मुझसे दस हजार नकद वसूल कर लीजिए। मिर्जा साहब ने उनकी ओर हिकारत से देखकर कहा-मैं ऐसे रुपये पर और आप पर लानत भेजता ह। मिस्टर तंखा ने जरा भी बुरा नहीं माना। माथे पर बल तक न आने दिया। 'मुझपर जितनी लानत चाहें भेजें,मगर रुपये पर लानत भेजकर आप अपना ही नुकसान कर रहे हैं। 'मैं ऐसी रकम को हराम समझता हूं।' 'आप शरीयत के इतने पाबंद तो नहीं हैं।' 'लुट की कमाई को हराम समझने के लिए शस का पाबंद होने की जरूरत नहीं है।' 'तो इस मुआमले में क्या आप फैसला तब्दील नहीं कर सकते? 'जी नहीं। __ 'अच्छी बात है, इसे जाने दीजिए। किसी बीमा कंपनी के डाइरेक्टर बनने में तो आपको कोई एतराज नहीं है? आपको कंपनी का एक हिस्सा भी न खरीदना पडेगा। आप सिर्फ अपना नामदे दीजिएगा।' ___ 'जी नहीं, मुझे यह भी मंजूर नहीं है। मैं कई कंपनियों का डाइरेक्टर, कई का मैनेजिंग एजेंट, कई का चेयरमैन था। दौलत मेरे पांव चूमती थी। मैं जानता हूं, दौलत से आराम और तकल्लुफ के कितने सामान जमा किए जा सकते हैं, मगर यह भी जानता हूं कि दौलत इंसान को कितना खुदगरज बना देती है, कितना ऐश सिंद, कितना मक्कार, कितना बेगैरत।' वकील साहब को फिर कोई प्रस्ताव करने का साहस न हुआ। मिर्जाजी की बुद्धि और प्रभाव में उनका जो विश्वास था, वह बहुत कम हो गया। उनके लिए धन ही सब कुछ था और ऐसे आदमी से. जो लक्ष्मी को ठोकर मारता हो. उनका कोई मेल न हो सकता था। लकड़हारा हिरन को कंधे पर रखे लपका चला जा रहा था। मिर्जा ने भी कदम बढ़ाया,