गांव में मंगरू साह की आजकल चढ़ी हुई थी। इस साल सन में उसे अच्छा फायदा हुआ था। गेहूं और अलसी में भी उसने कुछ कम नहीं कमाया था। पंडित दातादीन और दुलारी सहुआइन भी लेन-देन करती थीं। सबसे बड़े महाजन थे झिंगुरीसिंह। वह शहर के एक बड़े महाजन के एजेंट थे। उनके नीचे कई आदमी और थे, जो आस-पास के देहातों में घूम-घूमकर लेन-देन करते थे। इनके उपरांत और भी कई छोटे-मोटे महाजन थे, जो दो आने रुपये ब्याज पर बिना लिखा-पढ़ी के रुपये देते थे। गांव वालों को लेन-देन का कुछ ऐसा शौक था कि जिसके पास दस-बीस रुपये जमा हो जाते, वही महाजन बन बैठता था। एक समय होरी ने भी महाजनी की थी। उसी का यह प्रभाव था कि लोग अभी तक यही समझते थे कि होरी के पास दबे हुए रुपये हैं। आखिर वह धन गया कहां? बंटवारे में निकला नहीं, होरी ने कोई तीर्थ, व्रत, भोज किया नहीं, गया तो कहां गया? जूते फट जाने पर भी उनके घट्ठे बने रहते हैं।
किसी ने किसी देवता को सीधा किया, किसी ने किसी को किसी ने आना रुपया ब्याज देना स्वीकार किया, किसी ने दो आना। होरी में आत्मसम्मान का सर्वथा लोप न हुआ था। जिन लोगों के रुपये उस पर बाकी थे, उनके पास कौन मुंह लेकर जाय? झिंगुरोसिंह के सिवा उसे और कोई न सूझा। वह पक्का कागज लिखाते थे, नजराना अलग लेते थे, दस्तूरी अलग, स्टांप की लिखाई अलग। उस पर एक साल का ब्याज पेशगी काटकर रुपया देते थे। पच्चीस रुपये का कागज लिखा तो मुश्किल से सत्रह रुपये हाथ लगते थे, मगर इस गाढ़े समय में और क्या किया जाय? रायसाहब की जबरदस्ती है, नहीं इस समय किसी के सामने क्यों हाथ फैलाना पड़ता?
झिंगुरीसिंह बैठे दातून कर रहे थे। नाटे, मोटे, खल्वाट, काले, लंबी नाक और बड़ी-बड़ी मूंछों वाले आदमी थे, बिल्कुल विदूषक-जैसे। और थे भी बड़ेहंसोड़। इस गांव को अपनी ससुराल बनाकर मर्दों से साले या ससुर और औरतों से साली या सलहज का नाता जोड़ लिया था। रास्ते में लड़के उन्हें चिढ़ाते-पंडितजी पैलगी! और झिंगुरीसिंह उन्हें चटपट आशीर्वाद देते—तुम्हारी आंखें फूटें, घुटना टूटे, मिर्गी आए, घर में आग लग जाय आदि। लड़के इस आशीर्वाद से कभी न अघाते थे, मगर लेन-देन में बड़े कठोर थे। सूद की एक पाई न छोड़ते थे और वादे पर बिना रुपये लिये द्वार से न टलते थे।
होरी ने सलाम करके अपनी विपत्ति—कथा सुनाई।
झिंगुरीसिंह ने मुस्कराकर कहा—वह सब पुराना रुपया क्या कर डाला?
'पुराने रुपये होते ठाकुर, तो महाजनों से अपना गला न छुड़ा लेता, कि सूद भरते किसी को अच्छा लगता है?'
'गड़े रुपये न निकलें, चाहे सूद कितना ही देना पड़े। तुम लोगों की यही नीति है।'
'कहां के गड़े रुपये बाबू साहब, खाने को तो होता नहीं। लड़का जवान हो गया, ब्याह का कहीं ठिकाना नहीं। बड़ी लड़की भी ब्याहने जोग हो गई। रुपये होते, तो किस दिन के लिए गाड़रखते?'
झिंगुरीसिंह ने जब से उसके द्वार पर गाय देखी थी, उस पर दांत लगाए हुए थे। गाय का डील-डौल और गठन कह रहा था कि उसमें पांच सेर से कम दूध नहीं है। मन में सोच लिया था, होरी को किसी अड़दव में डालकर गाय को उड़ा लेना चाहिए। आज वह अवसर