पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१०३

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७६ [गोरख-बानी धोतरा' न पीवो रे अवधू भांगिन पाचौ रे भाई । गोरप कहे सुणो रे अवधू या काया होयगी पराई ॥ २४१॥ सांइ सहेली सुत भरतार सरव सिसटि को एकौ । द्वार । पैसता पुरिस निकसता पूता ता कारणि गोरष अवधूता ॥२४२॥ राण्या रहै गमाया जाय सति सति भाणंत श्री गोरषराय । येकै कहि दुसरै मानी गोरष कहै वो बड़ो ग्यानी ॥ २४३ ॥ च्यंत अच्यंत ही उपजै च्यंता सव जुग षीण । जोगी च्यंता बीसरै तौ होइ अच्यंतहि लीन ॥२४४ ॥ . धादि ही में सुख पाता है, इसलिए मलिन रहता है । ( यह दोनों का स्वभाव है ) इससे एक की प्रशंसा और दूसरे की निंदा नहीं हो सकती । ( इसी प्रकार) योगी का शरीर-शोधन और बाहरी आत्मज्ञान किसी काम का नहीं है, यदि उसने अन्तस्तल में प्रवेश कर उसे दयालु नहीं बना दिया है। तप से यदि शरीर क्षीण भी हो गया है और भीतरी बातों का अभाव है तो भी क्या हुआ ? (यह तब भी किसी काम का नहीं)॥२४० ॥ धोतरा, धतूरा ॥२४॥ नारी मात्र को माता समझकर गोरख ने वैराग्य ले लिया है ॥२४२॥ रक्षा करने से चीज़ रहती है, न रक्षा करने से, गवा देने से चली जाती है, नष्ट हो जाती है। यह गोरखनाभ का सत्य वचन है। जो कहता है एक पात पर उसे प्रतीक मानकर अर्थ लेता है दूसरा, गोरखनाथ कहते हैं वह दहा शानी है। नोट-जान पड़ता है कि ये दो सपदियों के श्राधे अंश है, संभपतः पहला पेश ग्रह्मचर्य पर जोर देता है और दूसरा योगियों की प्रतीकों के सहारे अपने मनोभावों को प्रकट करने की प्रथा की ओर संकेत करता है ॥२४३॥ चिंता अचिंतित (घरयाशित रूप से) की उपज जाती है : चिंता के कारण सारा संसार क्षीण हो रहा है। योगी चिंता को भूल जाता है। (और इस प्रकार ) अश्यि पर प्रम में लीन हो जाता १. (ग) प्रोवरा । २. (ब) मागि । ३. (य) येको। ४ (ख) पुरीय । ५. (स) दी। है ॥२४॥