पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१३४

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गोरख-बानी] एक मैं अनंत अनंत मैं एकै, एकै श्रनंत" उपाया। अंतरि एक सौं परचा हवा, तब अनत एक मैं समाया ॥१॥ अहरणि नाद मैं व्यंद हथौड़ा, रवि ससि पाला पवनं । मूल चापि डिढ आसणि बैठा, तब मिटि गया आवागवनं ।। सहज पलांण पवन करि घोड़ा, लै लगांम चित चबका। चेतनि असवार ग्यांन गुरू करि, और तजौ सब ढबका १३ तिल कै नाकै तृभवन सांध्या, कीया भाव विधाता। सो तो फिर आपण ही हूवा, जाकौं १२ हूँढण जाता ।४। हो । पृथ्वी और श्राकाश के बीच कोई अंतर नहीं। यह यंतर न मानना अर्थात् अभेद दृष्टि ही कैवस्य मुक्ति का वृहत् मैदान है । एक (परब्रह्म) ही में अनंत सृष्टि का वास है । और अनंत सृष्टि में एक ही परब्रहा का निवास है। उस एक ही ने इस अनंत सृष्टि को उत्पन्न किया है। जब आभ्यंतर (हृदय) में उस एक से परिचय प्राप्त हो जाता है, तब सारी श्रनंत सृष्टि एक ही में समा जाती है। अनाहत नाद अहरन है, और विंदु (शुक्र) हथौदा है। और इला पिंगला नादियाँ हवा करने की धौंकनी हैं । मूलाधार को दवा कर हद श्रासन से बैठो (और लोहारो करो जिससे) आवागमन मिट जायगा। सहज की जीन है, पवन का घोड़ा है, जय की लगाम वनायो, चेतन (आत्मा) को सवार बनानो और इस प्रकार और सब उपायों को छोड़ कर सवारी करते हुए गुरु ज्ञान तक पहुंचो, उसे प्राप्त करो। मैंने त्रिभुवन को संधान कर लिया, लक्ष्य कर लिया, देख बाला, छान डाला पर परब्रह्म न मिला, जो तिल की नोट में था। परन्तु जब विधाता ने १. (घ) एक तें अनेक अनेक तें ऐक । २. (घ) ऐक अनत । ३. (घ)ऐक ऐक सू। ४. (घ) सो फिरि तहां । ५. (घ) में 'अहरणीनाद से लेकर आवा- गमनं तक नहीं है । ६. (घ) का । ७. (घ) ल्यौ। ८. (घ) सबद गुरू का चेतन राषौ । ९. (घ) में-'सहज पलाणां' से लेकर 'ढबका' तक का पद केवल मुक्ति मैदान' और 'एक मैं अनंत' के वीच है । १०. (घ) त्रिभुवन सूझै । ११. (क) सौ; (घ) में आधा चरण 'जो या सो फिर आपैं हवा'। ११. (घ) •। ८. (घ) बिण परचै जुग वूडण बूडा, साच दिनां को सीधा । -