पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१३५

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[गोरख-चानी स्ति कहूँ तो कोइ न पतीजै, बिन आस्ति (अनंत सिध) क्यू सीधा। एष वौलै सुणौ मछिंद्र हीरै हीरा बीधार १५ ॥१४॥ ततबणिजील्यौ तत बरिणजील्यौ, ज्यू मोरा मन पतियाई ॥टेक|| ज गोरषनाथ बणिज कराई, पंच बलद नौ गाई । ज सुभावै वाषर ल्याई५, मोरे मन उड़ियांनी आई।श हट घाट अम्हे वणिजारा, सुनि हमारा पसारा । I न जाणों देण न१० जाणे एद्वा वणज हमारा ।। रांत गोरपनाथ मछिंद्र का१२ पूता, एद्वा 3 बणिज ना अरथी। णी अपणी पार १४ उतरणां, बचने लेण१५ साथीं१६ ३ ॥१५॥ दय में ) भाव उत्पन्न किया ( अर्थात् सच्ची लगन पैदा हुई) तो जिसे दिने जा रहा था वह में ही हो गया । जय में कहता हूँ कि परब्रह्म है तो कोई विश्वास नहीं करता, (परन्तु ) {यह नहीं है तो अनंत सिद्ध (इतने कष्ट-साध्य साधनों के द्वारा ) क्यों फते रहे । असल बात तो यह है कि हे मछर ! इन सव साधनों का श्य हीरे से ही हीरे को वेधना, प्रात्मा से परमात्मा में प्रवेश करना रहा है। यात् परब्रह्म परमात्मा है तभी तो सिद्धों ने भी इतने कष्ट उठाये । ) ॥१४॥ तत्त्व का इस प्रकार वाणिज्य करो कि मेरे मन में विश्वास हो जाय कि | वाणिज्य है। गोरखनाथ सहज ज्ञान का वाणिज्य करते हैं। पाँच जानेंद्रियों के ) बैल हैं और नव ( रंध्रों की ) गायें, जिनके लिए सहज भाव घर (वाखर) यनाया गया है अर्थात् उनको प्रवृत्ति भी सहजानुरूप हो गयी । चौर मेरा मन ऊंची उड़ान लेने लगा है। सुरहट (बहुत ऊँचे ) घाट (स्थान ) का मैं व्यापारी हूँ। शून्य का मैंने १.(प) कहै । २. (क) बेधा । ३. (क) वणिज्यालो; (घ) विणजीलो रणज' के स्थान पर सब जगह (घ) में 'विणज' है। ४. (घ) मेरा । ५. ) में यह अंश नहीं । ६, (घ) मोरै मनि उडियांणी। ७. (घ) सुरहट । (घ) हमे । ६.(घ) लेना जांगू दे न जाणू। १०. (घ) ऐसा । ११. (घ) एप कहे । १२. (घ) ना । १३. (घ) ए दवा । १४. (घ) श्रापणी करणी रे। १५. (घ) गुर वचन लेना । १६. (घ) में 'साथी' लिखकर उसे गोट

'सापी' बनाया है।