पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१४०

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गोरख-बानी] १०६ सुनि' न अस्थूल ल्यंग नहीं पूजा, धुनि विन अनहद गाजै। बाड़ी विन पहुप पहुप बिन साइर , पवन बिन श्रृंगा' छाजै ॥३॥ राह बिन गिलिया अगनि बिन जलिया,अंबर विन जलहर भरिया। यह परमारथ कहाँ हो पंडित, रुग जुग स्याम अथरबन पढ़िया ॥४॥ ससंमवेद सोहं प्रकासं, धरती गगन न आई । गंग जमुन विच षेलै११ गोरप, गुरू मछिंद्र प्रसादं । ॥१८॥ (मैदान ) के युद्ध है। इस परमार्थ को जो जानता है उसके शरीर में अर्थात् उसके भीतर परम ज्ञान ( उदय हो जाता है।) वह न शून्य है न स्थूल, न उसके चिह्न है न उसकी पूजा ही है। विना शब्द के अनाहत नाद का गर्जन होता है। बिना बाटिका के पुष्प है और बिना पुष्प के सौरम (?) है और बिना वायु के ( वायु सुगंधि को चारों घोर विकीर्ण करता है, इसीलिए उसे गंधवाह कहते हैं। भौरों तक सुगंधि को हवा हो पहुँचाती है । ) भृगों का (मँडराता हुश्रा) समूह शोमा दे रहा है वह राहु के बिना ग्रस लेता है। अग्नि के बिना जला देता है, आकाश के विना बादल उमड़ पाते हैं। हे ऋग, यजुः, शाम और अथर्वण वेदों को पढ़े हुए पंडितो ! इस परमार्थ का वर्णन करो ( अथवा पाठांतर से यतात्रो इसका क्या प्रमाण है ? क्या प्रामाणिक अर्थ है ? इसे कैसे घटित करते हो?) निरालंब ब्रह्मानुभूति किस कारण का कार्य नहीं है । यहाँ, माया के निरसन बगत के ध्वंस और श्रानन्दानुभव की ओर संकेत है जो प्रमानुभूति के धोत्तक है। यह स्वसंवेद्य स्वयं-प्रकाश सोहंभाव है जो न धरती में है, न आकाश में है और न जल में। (आदं, श्रा, जलमय । 'श्रादं काल का संकेत भी कर सकता है, अर्थात् जिसका श्रादि नहीं है। ) गुरु मचंदर के प्रसाद से गोरख- नाथ गंगा ( इडा) और जमुना (पिंगला) के योच (सुपुग्ना) में खेल रहा है (अर्थात् समाधिस्थ होकर प्रारम-साक्षात्कार कर रहा है ॥१८॥ १. (ध) सुनि, धुनि । २. (घ) थूल । ३. (घ) लिंग । ४.(घ) सायर । संभवतः वह 'सौरभ' या 'चौरह' है। 'साइर' का तो अर्थ नहीं बैठता। ५. (घ) भ्रांगा । ६. (घ) गिलीया, जलीया, भरीया, पढ़ीया । ७. (घ) परमाण कहौ ; (क) परमारय करौ। ८. (घ) प्रकासा । ९. (घ) चंद । १०. (प) गंगन ११. (घ) बोल ।