पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१४१

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११० [गोरम्ब-वानी बदंत गोरपनाथ' दसवीं द्वारी सुर्ग ने केदार चढ़िया । इकबीमा ब्रह्मण्ड ना सिपर ऊपरि, ससमवेद ऊचरियाटेका। द्वादस दल भींतरि° रवि सक्ती, समि षोडस सिव थांनं। मूल सहंसर जीव सीव घरि उनमनी अचल धियांनं११।१। नाद अनाहद गरजै गणं, पछिम ऊग्या भांणं । दक्षिण डीबी उत्तर नाचे, पाताल पूरव तांण । २ । चंद सूर नीं मुंद्रा कीन्ही१३, धणि भस्म जल मेला। नादी व्यंदा ४ सींगी आकासी१५, अलख गुरू ना१६ चेला । ३ । . है 1 गोरख कहते हैं कि दसवे द्वार (ब्रह्मरंध्र ) में मैं स्वर्ग और मोक्ष पद (शिव स्थान केदार ) तक चढ़ गया हूँ। और २१ ब्रह्मांडों के ऊपर से स्वसं- वेद्य परमानुभूति का उच्चारण कर रहा हूँ। सूर्य की ( मूलाधारस्य ) बारह कसानों में शक्ति का निवास है और चन्द्रमा की सोलह कलाओं में शिव का स्थान मूलाधार सहस्रार में मिल गया है। और जीव शिव स्थान में उन्मना- तस्था द्वारा अचल ध्यानस्थ हो गया गगन (त्रिकुटी ) में अनाहत नाद का गर्जन हो रहा है । सूर्य पश्चिम (सुपुरणा) में उदय हो गया है। (अर्थात् चंद्रमा से मेल का उपक्रम हो गया है।) दक्षिण (मूलाधार तथा स्वाधिष्ठानस्य शक्ति उत्तर दिशा अर्थात् प्रारंध्र में नाच रही है। पाताल (स्वाधिष्ठान ) का खिंचाव पूर्व अर्थात् ज्ञानोदय की दिशा अर्थात् सहस्रार की ओर हो चंद्र और सूर्य (इसा और पिंगला) दोनों नादियों को मूंद दिया । अर्थात् सुपुग्णा का मार्ग खोल दिया। यही हमारा मुद्रा-धारण है । पृथ्मी (अर्थात् मांगारिकता ) हा भस्म जल में डाला ( शरीर पर मलने के लिए। यही योगी रहा है १. (क) गोर्षनाय । २. (घ) दसवे द्वार । ३ (घ) सरग नै केदार चाढ़ीया रेली ३. (घ) में प्रथम दो तुकों के बाद रे लो तथा अन्यों के बाद 'लो' याता है । ४. (घ) यफबीस । ५. (घ) ऊपरें । ६. (घ) उचारीया रे लो । ७. (घ) श्रमि अंतर। ८ (घ) सिस मोन स्थानं लो। ९. (घ) में मूल सहंसर के स्थान पर 'मूल कयल तहां' १०. (घ) उनमनि ! ११. (घ) निधानं । १२ (क) मजे । १४.() नी मुद्रा कीन्दी । १४.(प) मेदी । १५. (घ) श्राकाने । १६ (घ) ना।