पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१९१

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१५२ [गोरस-वानी एक वू दि के कारणि आप सवारथि, तुम्हें बाल हत्या फल लेस्यौ रे । नर नारी दोन्यूनरकि पडिस्यो, पाणी घालि पड़ेस्योरे। डांजनि भूत्वा निरंजन चूका तुम्हे लीयां सालि म बालौरे । मछिंद्र प्रसादै जती गोरप वोल्या जीती सारि न हारौ रे ॥१५॥ चलि रे अविला कोयत्न मौरी, धरती उलटि गगन कुँ दौरी ॥टेका। गईयां वपढ़ी सिंघ नै धेरै । मृतक पसू सूद्र कू उचरै। फाटै ससत्र पूजै देव । भूप करै करसा की सेव। फन (दंद) मिलेगा । नर नारी दोनों नरक में पढ़ोगे और एक घान में शाले बाांगे। (अर्थात् दोनों को एक सा दंड मिजेगा । एक बार में जितनी खोज तस्यार की जाती है जैसे चने भूजने, धान फूटने इत्यादि में उसको एक धान कहते हैं।) काया में भूल कर, निरंजन को त्याग कर, प्राप्त की हुई फसल (धान) को न जला डाला। मत्स्येन्द्र के प्रसाद से यती गोरखनाय फहते हैं कि जोती हुई दाजी को न हारी ॥१५॥ थाम माया है । जप श्राम (माया) फूलता-फलता है तब कोयल (मनसा या मनोवृत्ति) अानंद के लिए श्रान वृक्ष के पास जाती है किन्तु जय ज्ञानोदय होता है तय यह परिस्थिति उलट जाती है । ज्ञान के उदय होने पर मन को पहिर्मुख वृत्ति एक जाती है और धानंद को याहर खोजने के पदले वह उसे सपने ही में प्राप्त करता है । यह स्वयं श्रानन्द का केन्द्र हो जाता है क्योंकि प्रधिमान जिस पर उपाधियों के भारोप से मन-मनसा बनी है यह मानन्द स्वरूप मम ही है। यही कोयन का बोरना है । श्रय ब्रह्मानंदोपभोगी की मायिक प्रवृधि ( धान मी) मन के इस पुष्पित होने से, प्रशानुमय से, भानन्द पाठ करती है। गगन, प्राकाश, शून्य हो से यह सारी सष्टि उत्पन्न होती है और एन्य में हो यह प्रमानुभवी के लिए विलीन हो जाती है। धरती या सृष्टि का मनी एलिनी शक्ति है जिसका निवास मणिपुर में है। पोगाम्यास से रंजिनी नागरित होकर सरंध्र की मोर उनी है। प्रशानी मनुष्य को परिमुभव प्रवृधि ही सिर है जो महंकार मादि परमों के द्वारा उसकी पसची मति (गाप)का धेरै हुए रहता है। परन्तु अब साधना सफर राने पर पह मिस रूप मायिक मति नियंस पर गयी है और मायामिफनाक घी में पंप गई, उसका परानप हो गया है। जिन्हें मारमानुभूति महीने -