पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१९२

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गोरख-बानी] १५३ तलि करि ढकणी ऊपरि माल । न छीजैगा महारस बंचेंगा काल । दीपक बालि उजाला कीया । गोरष कै सिरि परवत दीया ॥५६॥ सांगलि राजा बोल्या रे अवधू । सुणौ अनोपम यांणी जी। निरगुण नारी सू' नेह करतां । भयकै रैणि विहांणी जी ॥टेका डाल न मूल पत्र नहिं छाया । विण जल पिगुला सीचे जी। विण ही मढीयां मंदला वाजै । यण विधि लोका रीझ जीश " मृतक पशु के समान हैं। यमराज (शूद ) उन्हें घसीरते ले जाता है किंतु भव वह मृतक पशु अपने भीतर पशुख (अहंकार ) को काट कर जीवन्मृत (जीवन्मुक्ति ) होकर यमराज को घसीटे ले जा रहा है, यमराज उसके बन्धन में है, उसका कुछ नहीं कर सकता । प्रमानुभूति होने पर किसी देवता की पूजा की आवश्यकता नहीं रहती थलिक सय बौकिक देवता उसकी पूजा करते हैं श्योंकि ब्रह्म सयसे बढ़ा है और ब्रह्मज्ञानी ब्रह्म ही है। अब पलि पशुओं को काटने की आवश्यकता नहीं रह गई प्रत्युत शस्त्र ही काटे गये हैं, बेकाम हो गये है। ढकन नीचे कर मतंन को औंधा करने से तो पात्र की वस्तु गिर जावेगी। और उल्टे पात्र के ऊपर भाग के चलते रहने से भी कोई ध्यान सिद्ध नहीं हो सकता। परंतु यहाँ विशेष परिस्थिति है। यहाँ विपरीतकरणी मुद्रा के द्वारा सिर ( उक्कन ) को नीचे और ज्वाला (कुंडलिनी ) को ऊपर करने का उपदेश दिया गया है। इससे महारस (अमृत) का क्षय होना रुक जायगा और काज वञ्चित हो जावेगा। नाथों की विद्या इसीलिये कालवंचिनी विद्या कही जाती है। इस प्रकार ज्योति (प्रम) को दोध कर गोरख ने ज्ञान का प्रकाश किया । पर इससे उस के सिर का मार हलका होने के बदले बढ़ गया। उसके सिर पर पहार ही रख दिया गया, क्योंकि उसे जान पड़ा कि मैं स्वयं सष्टि का मूल कारण परवा हूँ और स्वयं मुक्त हो जाने पर मुझे अय समस्त करना है ॥१६॥ जोगी ने उपदेश दिया, हे राजा समनो । हमारा अनुपम उपदेश सुनो। उन्होंने तो गुणहीन (निगुण यहाँ ब्रह्म-परक नहीं है) स्त्री माया से प्रेम कर मोते हो रात (ओवन ) बिता दी है। माया ऐसे वृक्ष के समान मिथ्या है जिसके न शाखा है, न जड़ है, न पचे हैं, न पाया है, सोंचता भी उसे पंगु है और वह भी बिना जल के। फिर भी जोग उसके मन के लिये बालायित रहते संसार को