पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[गोरख-बानी ट्यां परबत ढोल्या रे अवधू । गायां बाघ विटारपाजी। पुसलै समदां लहरि मनाई, मृघां चीता मारचा जी।२। झमड़ मारगि जाता रे अवधू, गुर विण नहीं प्रकासा जी। जीत्या गोरष अय नहीं हारे, सममि रराले पासा जी ॥५॥ तुमि परिधारी हो अणघड़ीया देवा । घड़ी मूरति कू' सब कोई संवै, ताहि न जाणे भेवा ॥टेक।। तू अविनासी श्रादू कहीए, मोहि भरोसा पढ़ीया। सब संसार घदया है तेरा, तू फिनहें नहिं घड़ीया ।। दस औतार औतिरीया तिरिया, बै पणि राम न होई । कमाई अपणी उनहूँ पाई, करता और कोई ।। तूंपूरण प्राप्त पुरष प्रिथमो का, सूरति मूरति सारा। अधणां सुण्यां न नैनां देष्या, तेरा घड़णें हारा ॥३॥ तू तो आप आप तै हूषा, तूं देष्यां उजियारा । गोरप फहै गुरू के सबदा ही घदनै हारा।४॥ ५८ ॥७ है । यह ऐसा मृदंग है जिसके दोनों मोर के परत मरे नहीं है। उसका सुख. पितास पैसे ही मिथ्या है जैसे बिना मदे मृदंग की धनि । इस प्रकार योग माया पर रीगने है । हे अयधू, इस प्रकार चीटी ( तुपए माया) ने पर्वत (पर- मोच्च प्रात्मा ) को गिरा गला | गाय (नियंत माया) ने वार (सयन प्रारमा) की दुदंगा कर रो है। मई (तुएछ माया) ने यमुद्र की नहरों को मना लिया । अपनी इप्पा के अनुकूल बना दिया। मृगों (इंद्रियों) ने पोते (मरन तप) को मार रादा है। द्रियाँ पनपती हो रही है और भागमा 'नहीं' जैसी हो रही है। माया के यशोमत लोग जा तो रहे हैं या मायण मागं में पर गुरु के बिना टन्हें उजाला न मिळवा, वे मंशकार ही में रह जाते हैं। गोरखनाय तो अब ममम का पोसे राजेगा, जीती हुई बात्री को हाग्गा ना मुमले +या। माना का एक पद इसमें पोहा बहुन मिलता है, देसी दानाजी करे शादी, १.८२, पद ५१: सांगी, अग ४२, पद ७। .