पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२०२

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गोरख-बानी] १६३ ७ दार बनीं 'न्यू होइया भेवं । असंष दल पंधुढी गगन करि सेवं । बदंत गोरष अविचल जापं ५ । लिपै नहीं तहाँ पुन न पार्य, सुंनि ध्यान सोलह कला सपूरण माला । आपण स्यभू श्रीगोरपं वाला। इती श्रीगोर्ष सिष्या पढ़ते गुणते, कथंते करते, पापे न लिपंत, पुन्ने न हारते, ॐ नमो सिवाइ, ॐ नमो सिवाइ, गुरु मछींद्रनाथ पाटुका नमस्तते। एवं सिक्ष्या दरसरण जोग ग्रंथ शास्त्र संपूरण समाप्तः । , को साथ चलायो। बहत्तर बुर्ज अर्थाद वहत्तर ( या बहत्तर कोटि ) नालियों नाय हो का गान करेंगी। नौ सड पृथ्वी में मिक्षा मांगनी चाहिए । अर्थात् नवद्वारों पर अपना अधिकार रखना चाहिए । (इस प्रकार ) त्रैलोक्य अथवा त्रिकुटो में तुम्हारी विपक्षता (पाठांतर के अनुसार उपेपा) न होगी, प्रारंभ में प्रवेश पाने में रोक न होगी । वहीं चौदह ब्रह्मांडरों का द्वार (अधिष्ठान ) देखना चाहिये । क्योंकि पट दशनों से इस पंथ ने सार भाग ले लिया है। फिर जैसे बकरी में से गुप्त अग्नि प्रकट रूप धारण कर लेती है उसी प्रकार तुम में गुप्त प्रामस्व भी प्रकट हो जायगा । असंख्य दल कमल की वहाँ सेवा करनी चाहिए। वहाँ गोरख स्थिर जाप जप रहा है, वहाँ पुण्य और पाप नहीं छूठे । शून्य में लह कला की संपूर्ण माना वाजे चंद्र का पान का (भमृत पान से) योग सिरि द्वारा बालक रूप प्राप्त गोरस स्वयं शम्भु हो गया है। १. (घ) बहनी 1 २. (घ) होयका । ३. (५) मेव । ४. (4) गोरपनाय। ५. (१) जाप "पाप । ६.() पुनि। ७. (१) सुनि । २. () आपन सिंम् । ६.(6) भी गोष। (घ) श्रीगोरखनाथ ।