पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२०३

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प्रांण संकली प्रथमे प्रणऊं गुरु के पाया । जिन मोहि आत्म ब्रह्म लषाया। सत गुरु सबद कहयां तें बूझधा । हूँ लोक दीपक मनि सूझथा ॥शा पाप पुन करम का बासा । मोष मुक्ति चेतहु हरि पासा । जोग जुक्त जब पात्रो ग्याना । काया षोजौ पद नृवाना ॥२॥ सप्त दीप पंड ब्रह्मएडा । धरती आकाश देवा रविचंदा । तजिबा तिहुँ लोक निवासा । तहां निरञ्जन जोति प्रकासा ॥३॥ दिवस न रात बरषे न मासा । गरजै मेघ गगन कविलासा। अगम सुगम गढ़ रच्या बिनाणीं । अगनि पवन ह जल सांणीं ॥४॥ तीस पौलि तेरह प्रबाणीं । तीनि गुप्त दस प्रकट जांणीं । नौ नाटिका कोटड़ी बहतरि । चोर पचास पचीस पंच घरि ॥५॥ तृहूँसूझया=ज्ञान रूप मणि-दीप के प्राप्त होने से तीनों लोकों का ज्ञान होने लगता है ॥२॥ निर्वाण पद को खोज शरीर ही में करनी चाहिए। बाहर का रहना छोदो, बहिर्मुख वृत्ति को बाहरी वस्तुओं से समेट कर थंतर्मुख कर लो । (अपने भीतर निवास करो) वहाँ निरञ्जन ब्रह्म की ज्योति प्रकाशमान | काल उसको छु नहीं सकता ॥३॥ वहाँ दिन, रात वर्ष मास घादि काल के परिणाम नहीं पहुँचते । अनि, पवन, खेह, और जल एक साथ मिलाकर विज्ञान ने इस अगम्य सुगम दुर्ग (शरीर ) का निर्माण किया है। सामान्यतया यह दुर्ग दुरारोह है किन्तु योग की युक्तियों से सुगम है। यह कैलास के तुल्य ऊँचा है। इसके ऊपर आकाश में मेघ गरजते हैं ॥४॥ उसके (तीस तस्य) तेरह प्रामाणिक फाटक हैं जिनमें दस प्रकट और तीन प्रांण संकली प्राण शृंखला (क) और (अ) के आधार पर। (अ) में इसका शीर्षक 'श्रात्मवोध' है । परन्तु उसके मंगलाचरण के श्लोक से भी वह 'प्राण शृखला' ही सिद्ध होती है । १.(क) रूह । The