पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२३६

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. १२ १४ १९ गोरख-बानी ] गोरष-स्वामी कर' उतपनीषुध्या, कथं उत्तपनां अहार । कथं उतपनी निंद्रा, कथं उतपनां काल ॥ १॥ मछिन्द्र-वधू मनसा उतपनी पुण्या, पुध्या उतपना अहार । अहार उतपनी निंद्रा, निंद्रा उतपना काल ॥७२॥ गोरष-स्वामी सति सति भाषत हो गुरू पंडिता,मन पवन कौंण दिसा। कौण द्रिष्टि कौंण विधि ग्यांन,नृगथा पार उतरिचा किसा ||२|| मछिन्द्र-अवधू द्रिष्टि थे दिव द्रिष्टि होइबा,गिनांन थे विनान होइबा। तथा गुरू सिख को एकै काया, परचा होइ तौ बिहड़ि ८ न जाया ॥ ७४॥. गोरप-स्वामी कहां थें उठत सास उसास । कहाँ परम हंस का बासं। कौंण घर मन थिर होइ रहै। सतगुर होई सु बुझयार 'कह।।७५ मछिंद्र-अवधू अरधै उठत' 'सास उसासं । उरर्धे परम हसं का बासं । सहज सुन्नि मैं मन थिर रहै. 3 | ऐसा विचार मछिंद्र कहै ।।७६॥ गोरष-स्वामी कैसे प्रावै कैसे जाह । कैसै चीया रहै समाइ । कैसैं मन तन सदा थिर रहै । सत गुर होइ सु वुझ्या कहै ॥७. मछिद्र-अवधू सुने आवै सुने जाइ । सुने चीया रहै समाइ । सहज सुनि मन तन थिर२५रहै । ऐसा विचार मछिंद्र कहै ।। षुध्या-सुधा ||७|| गिनांनज्ञान । विनांन=निज्ञान !! १. (घ) में सर्वत्र 'कयं' के स्थान कहां थें । २. (घ) सर्वत्र 'उतपनी'।३ (घ) मनसा थें । ४. (क) न्यद्रा । ५. (घ) सब कारणों में 3 । ६. (क) उत्पनीं । ७. (क) उत्पना । ८. (क) अहार । ६. (घ) में 'हो नहीं। १०. (घ) 'पवन' के बाद 'की'। ११. (घ) दसा। १२. (५) द्रष्टि; (क) दृष्टि । १३. (प) निग्रन्थ पारि । १४. (क) कैसा । १५. (क) दृष्टि । १६. (५) ग्यान में बिग्यांन । १७. (घ) एको । १८. (५) बहौरि । १६. (१) ऊठत । २०. (घ) कैसे मनवां निश्चल रहै । २१. (घ) स पूछयां । २२. (घ) अरधत। २३. (घ) सहजि अस्थांनि मनषां निसचल रहै । २४. (घ) तन मन । २५. (घ) थिरि । २६. (क) सुने . सुने...तुने ।