पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२४२

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गोरख-बानी] कौण मुषि होइ जोति मैं रहै । सतगुर होइ सु वूमयां कह।।१०१ मछिद्र-अवधू सहज मुषि' होइ आवै सक्ति मुपि' होइ जाइ। निपष: होइ काल कौं षाइ ।। निरास मुषि होइ जोति मैं रहै । ऐसा विचार मछिद्र कहै ।।१०३॥ गोरप-स्वामी कोण सो काया कौंण सो प्राण, कौंरण पुरिस का करिये५ ध्यान। कौण अस्थांन परिक्ष काल सौं रहै, सतगुर होइ सुबृमयां कहै ॥१०३॥ मछिंद्र-अवधू पवन सो काया मन सो प्राण, परम पुरिस का धरिये ध्यान । सहज अस्थांन घरि काल सौं रहै, ऐसा विचार मछिंद्र कहै।।१०४ गोरष-स्वामी कौण सो कूची कौंण सो ताला, कोण सो बुढा कोण सो वाला। कौण अस्थांन मन चेतनि रहै। सतगुर होइ सु झयां कहै ।।१०५ मछिद्र-अवधू निहसवदची सवदार ताला। अचेत ३ बूढ़ा चेतनि बाला। ग्यांन भस्यांना मन चेतनि रहै। ऐसा विचार महिंद्र कहै ।।१०६ मोरय-स्वामी कोण सो साधिका कारण सो सिधि, कोण सो मावा कोण सो रिधि ।। कैसैं मन की भ्रांति नसाइ। गुरू गुसाई कहौ समझाई ॥१०॥ १. (क) मुष । २. (घ) स पूछयां । ३. (क) नृपपि । ४.(4) ! ५.(घ) घरीए । ६. 'त्यांन परि के स्थान पर (प) 'स्यानि मन' । ७. (भ) में मी 'होइ।। ८. (घ) अस्थांन परि' के स्थान पर 'सथांनि मन' । ९. (१) सयांन । १०. (५) उनमन ! ११. (१) निहिसबद । १२. (क) सन्द । १३. (घ) अचे- तनि । १४. (घ) अत्यांनि । १५. (घ) समाधि १६. (क) सिंध। १७. (भ) सतगुर गई।