पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ग्यान तिलक . वाल ॐ सबदहि ताला सबदहि' कूची सवदहिर सवद भया उजियाला। कांटा सेती कांटा पूरी कूची सेती ताला। सिध मिले तो साधिक निपजै, जब घटि होय उजाला ॥ १ ॥ अलख पुरुष मेरी दिष्टि समाना, सोसा गया अपूछा। जवलग पुरुषा तन मन नहीं निपजै, कथ बदै सब झूठा ।।२।। सहज सुभाव भेरी तृष्ना फीटी, सीगी नाद संगि मेला। यंम्रत पीया विपै रस टारया गुर गारड़ौं अकेला ॥ ३ ॥ शब्द ही तोला है जो ब्रह्म को वन्द किए हुये है, और शब्द ही यह भी है, जिससे वह ताला खोला जाता है और परमात्मा के साक्षात् दर्शन होते हैं। प्रयव शब्द ब्रह्म का पहला विवर्त है। इसीलिए वह उसको बन्द किये हुये हुए है परन्त प्रणव की ही उपासना से, परमा का दर्शन भी हो सकता है, जो मन से गोचर नहीं है, इसीलिए वह कुली है। गुरु का शब्द भी ब्रह्म को अपने में छिपाये रहता है। प्रा ज्ञान भौर ब्रहा अलग अलग वस्तु नहीं है। और गुरु के हो शब्द से वह भेद खुलता भी है। जैसे कांटे से कांटा निकाला जाता है, और कुञ्जी से ताली खोली जाती है, वैसे ही शब्द से शब्द भी खोला जाता है। इस प्रकार शन से उजाला हो गया।सिद के मिलने से साधक की उत्पत्ति होती है, तभी अन्दर उजाला होता है। कुंची-कुक्षी । पूरै नष्ट होता है | पुरुष के दर्शन से मेरी दृष्टि में अलख पुरुष परब्रह्म समा गया, जिसका फल यह हुआ, कि उनटे मैं स्वयं ही परमझ में सोख लिया गया। मेरी एप्टिमें परब्रह्म समाया, और मैं परब्रह्म में समा गया। जब तक पुरुष, परवाह तन में उत्पन्न नहीं हो जाता, व्याप्त नहीं हो जाता, हम अपने सारे अस्तित्व में उसका अनुभव नहीं करने लगते, तप तक अध्यात्म-कथन मूला है ॥२॥ जो तृप्या सहज स्वभाव से नष्ट हो गई है, और अनाहतनाद के द्वारा ग्यांनतिन्नक केवल (घ) और (घ) के आधार पर । १. (घ) ही। २. (अ) सहज समाधि ।