पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[गोरख-बानी सरप' मरै बांबी उठि नाचे, कर विनु डैरू वाजै । कहै नाथ जौ यहि विधि जीतै, पिंड पड़े तो सतगुर लाजै ॥४॥ दरपन माहीं दरसन देष्या, नीर निरंतरि झाई। आपा मांहीं आपा प्रगट्या, लखै तो दूर न जाई ॥५॥ चकमक ठरकै अगनि झरै यू', दध मथि घृत करि लीया । पा मांही आपा प्रगट्या, तव गुरू सन्देसा दीया ॥६॥ है। निसके उपजषण स्वरूप सिंगीनाद नाय पथ में प्रहण किया गया है, मेरा मेव परमम्ह से हो गया है। इस प्रकार मेरे कैवल्य प्राप्त (अकेले) गुरु-रूप गारुडी ने विषय रस (ल्प विप) का निवारण कर मुझे अमृत पान कराया है ॥ ३ ॥ जिसकी कुंटलिनी या शक्ति शिव में समा गई हो, माया मर गई हो, उसका शरीर (बांपी ) योगामृत के पान से संजीवित होकर भानंद में नाच उठता है उसके भीतर हाय के बिना पजनेवाला डमरू (अनाहत नाद ) बज उठता नाय कहता है, कि जो साधक इस प्रकार माया के उपर विजय प्राप्त कर लेता है (यह अमर हो जाता है। ऐसे सिद्धि प्राप्त चेले का यदि शरीरपात हो जाय तो सद्गुरु के लिए लज्मा की बात हो जाय, सद्गुरु को भी लज्जित होना पदे । क्योंकि इससे पता चलता है कि स्वयं गुरु अधूरा है, चेले को क्या सिसाता ॥४॥ जिससे दर्पण में दर्शन देखा हो, मर्याद अपने श्राप परनम्ह निरंजन का साक्षात्कार किया हो-पैसे हो जैसे बल में किसी वस्तु का निरंतर प्रतिबिंब पर रहता हो, और अपने ही में जिसका पारमा प्रकट हुआ हो, उसे इधर-इधर कहीं दूर भटकने को प्रापश्यकता नहीं रहती। यह तो स्थिरता प्राप्त कर लेता The जैसे चकमक पत्थर पर रगर करने से अग्नि मरती है वैसे, अपया जैसे दो को मपर घी निकाला बाता है, वैसे, जब अपने पापा में प्रारमा मन्ट हो पाय, वो समझना चाहिए कि गुरु ने शिक्षा दी है, गुरु शिक्षा का दुमा है॥६॥ प्रमाप १. (प) मर । २. (घ) दरगन; कार का पाठ (अ) के अनुकूल रक्ता