पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२० [गोरख-बानी अहुँट' कोटि दस धागा भरौ । गुरु परसादै तिर तिरौ ॥८॥ काया पड़ासण मन जोगौटा । पांचों इन्द्री करौ कछौटा॥ जत सत क्रीया संजम चलावौ । डंडा लाठी डीबी पावौ ॥६॥ पछिम उत्तर दछिण पूरब । वै तो जोगी जोगौटा चलावी॥ माथे जटा दरसन५ विकराल । तौ अवधू जोगी वचौ काल ॥१०॥ सीमी सेली श्रर जपमाला । बाई फेरो गगन मॅझारा ।। नव बैहैतर पवनां मूल । षट् चक्रं गंगा गौरी तिरसुल ॥१२॥ अलष पुरिष तहां कू व्याया। नग्र कोट उरध थी० आया । चीत चक्र११ मैं जै पवनां गहै । ब्रह्म अगिनि प्रगट जल रहै ॥१२॥ बीस्नं बीस्नं करै सब कोय । बिना निरजन मुकति न होय ।। मूल चक्र तहां सहस्र दल बाट । मन पवन लै षोलो कपाट ॥१३॥ गोरष बिस्न लागा बाद । गोरष लेर१२ बजाया नाद ॥ बीस्न कीया मृघ का रूप । माऱ्या मृघ ध्याया अवधूत ॥१४॥ पूरब जाता पछीम हांस' । मारथा मन मृघ भषोले मांस 3॥ नाली चांपी सींगी नाद बजाय'४ । यही सींगी नाद गगन कुंजाइशा? गगन मडल मैं रहै समाइ । अनंत सिधां पाई जोग बाइ। सींगी नाद गगन कू जाइ । अह निसि चंदा (रहै) गगन समाइ ॥१६ पांचू इन्द्री पूरै स्वाद । ते अवधू बजावै सींगी नाद ।। अनहद नांद परध का मूल । चंद सूर१५ सुषमन६अस्थूल ॥१७॥ १. (घ) अकट ! २. (घ) दूतर । ३. (च) कड़ासनण ; (घ) कड़ा परंतु; (घ) में दूसरे स्थल पर पाठ 'षडासण' भी है । देखो अगले पृष्ठ पर २ का मूल । ४. (घ) दषिणः । ५. (घ) दरसण । ६. (घ) विक्राल । ७. भोकाल । ८. (च) त्रीये ; (घ) में 'गंगा नहीं है । ६. (घ) (च) त्रिसूल । (घ) रौं । ११. (च) चकमक १२. (घ) लेय । १३. (घ) हंस...मंस । (घ) में 'वाइ"जाई' इत्यादि की 'इ' के स्थान पर सर्वत्र 'य' है । १५. मन का।