पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/३०१

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२५४ [गोरख-बानी गोरष कहै सुणौ मछिंद्र। चिंतामणि सरीषौ चित । द्वादस नैं षोदि । षट मैं षोड़ि। नौ द्वारै मैं षोड़ि। चवदै ब्रह्मड का मोल एक दम । पवन ही जल । अंबर आत्मां । बीज ब्रह्म । बटक प्रांण ॥१०॥ गोरष गोपालं लो। गोष्ट थी पाली । गगन की गाय मनसा ।मही मन । अनभै ईश्वर । टेक । ममित मिट्यौ । तब माया मई। बाप वपु । छोरू यंद्री। लाल गवाल प्रांन । गाय मनसा । अनहद ईश्वर सबद । संप असत काया। गगन कँवल । सुनि असथांन गगन । गाय मनसा । परवार मन पवन । . सुरति निरंतरि प्रांण घरि । बरण रहत मनसा गाय ॥११॥ गोरप जोगी तोला तोले । सोला मन तालै पवन । ग्यांन सुबांधै । तब अमोल । टेक । जे विंद छ तौ । कद आत्मां न पड़ । बिंद पड़यां कोटि मोल जाय। जैसी उपनै भली बुरी तैसा करम करै। गगन ब्रह्म । अमर रांमरस । पून्यं चंद विषै रत पीजै। बिंद तोला तालि ले ॥ १२ ॥ च्यारि पहर आलिगन निंद्रा । आलिंगन कांमनींद । टेक । अमावस अग्यांन करि मन सुनो। घट ही सूनौ । मंगल झूठा । दस दोष की काया। पड़िवा उजालौ ग्यांन तो अनंद। पंच बसिवो ही ठाम । ससि पहली पहरौ। बीचि को पहरो त्रिगुणी मायां। तीन पहरा गया । धांम देह । दूजा घट परमेस्वर गांमौ अंग माया । जम भै भागौ ॥ १३ ॥ तत बणिजीलो तत बपिजीलो। तत नाम । पंचभूतोर गाय । मन बछौ । नौ द्वार बापर घरह वरख । उडियांन अडिग । सिरा को हाट सुनि। अभ्यास बनिज। कूड़ा लेन दैन ॥ १४ ॥