पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/३०४

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गोरख-बानी] २५७ उपन्यौ । मनसा कहै रे जोगी मन अध्यात्म लागौ काया पटण मैं ।टेका यकीस हजार छसै दम आदि का पुरष मन के हाथि। जपमाला दीनी । यड़ा मन पिंगुला पवन । सुषमनां सुरति । अहनिस राति दिन । प्रनाली नाड़ि उलटि बहै । षट छह सासू पोड़ि काया। केवल में दहे करि परिसिध। परब्रह्मचारी प्रांन । हंस ही पवन। जल ब्रह्म नौसै नाड़ि नदी सोई । पणिहारी आत्मां। गंगा तीर तहि के तटि । बणिज ब्रह्म सू। चंदसूर मन पवन । गगन ब्रह्य द्वार । घोर अंधार गुणां को हूवौ । पंच यंद्री पौढ़ी । सुनि प्रगट्या दसर्वे द्वार । काया हो कन्था । मन जगोटा ॥२२॥ मेरा गुर तीन छंद गावै। त्रिगुणी माया ॥ टेक ॥ कुंभार काया के वसि । हांडी ही माया। अहीर ( महीर-यथादृष्ट) कै महकी माया। ब्राहमण के ब्राहमणी लाया। राजा के सेल माया । बाणीयां के हींग माया । तेली के तेल माया। जंगलि वेलि माया । एक कार नानां प्राण पोया ॥२३॥ म्हारा रे वैरागी जोगी। जोगणि मनसा । मन जोगी। मन सरोवर ईश्वर । गगन ब्रह्म । मठ आसन । टेक । सासू सुरति। ससुरौ सबद । जोगणि मनसा । नाभि बसै ब्रह्म अस्थांन के वास ॥२४॥ रमिरे रमिता सू चौगांन । अहरणि नाद-विंद की काया । तातो सीली नाड़ी ए पवन । मूल द्वार पांचौ आसन करि । टेक । सहज ही पलांण । पवन का घोड़ा। ल्यौ लगाम । चित चाबक । चेतन असवार । ग्यांन गुरू । विल ब्रह्मद्वार- हीरो पांन । अहीर अपांन ॥२५॥ संभवतः 'महीर गलती से लिख गया है।