गोरख-बानी] १३ अवधू अहार तौड़ौ' निद्रा मोड़ो कबहुँ न होइगार रोगी। छठे छ मासै: काया पलटिबा ज्यूँ को को बिरला बिजोगी ॥३३॥ देव कला५ ते संजम रहिवा, भूत कला अक्षारं । मन पचना' लै उनमनि धरिबा ते जोगी तत सारं । ॥३४॥ अवधू निद्रा • कै परि काल११ जंजालं अहार कै घरि चोरं। मैथुन3 कै घरि जुरा गरासै१४ अरध-उरध लै जोरं१५ ॥३५॥ हे अवधूत पाहार तोदो, मिताहार करो, नींद को अपने पास न फटकने दो, छठे छमासे कायाकल्प किया करो । इससे तुम कभी रोगी नहीं होश्रोगे। कोई कोई विरले जोगी ऐसा कर सकते हैं ॥३३॥ श्राहार उतना ही करना चाहिए जितने से (पाँच भौतिक) शरीर की १. (क) तोड़ौं मोडौं। (ख), (घ) में इसके बाद 'ज्यु' है । २. (ख), (घ) होयबा; (ग) होइबा । ३. (ख), (ग), (घ) छ मावि । ४. (क) में पाठ -'नाग बंग बनासपती को बिरला जोगी (ख), (घ) में 'छठे छमासि काया पलटिवा' आगे ही एक दूसरी सबदी में है। जान पड़ता है कि यहाँ पर दो सवदियों का मेल हो गया है। (ख), (ग), (घ) में यह सबदी अधिक है, जिससे कोई विशेष अभिप्राय सिद्ध नहीं होता- अवधू अहार . तोडिंबा, पवन . मोड़िवा ज्यूँ कबहुँ न होयबा रोगी। छठै छमासि पलटंत, नाग बंग बनासपती जोगी | 'नाग बंग बनासपती जोगी, एक और सबदी में आया है ( देखो सबदी ६२) वहाँ तीन चार काया पलटने का विधान है जो नाग, बग, वनासपती के साथ मेल खाता है। इस लिए मैंने 'नारा बंग वनासपती जोगी को अधिक सवदी के साथ ग्रहण नहीं किया है। छठे छमासे के हिसाब से वर्ष में दो ही बार काया पलट हो सकता है, तीन बार नहीं। ५. (घ) में 'कला' के आगे 'तो' है । ६. (क) पवन। ७, (क) (ख) (घ) ले। 5. (ग) (घ) रहिवा। ६. (ग) योगी। १०. (क) निद्रा; (ख) न्यद्रा । ११. (ख) में 'काल' के आगे 'सा है । १२: (ख) चोर । १३. (ख) मिथन, (घ) मईथन । १४. (ख) प्रसै । (ग) में केवल से लिखा है। स्पष्ट ही उससे भी 'गरासै' पाठ ही पुष्ट होता है। 'जुरा' के 'रा' से प्रतिलिपिकार गड़बड़ में पड़ गया और समझा कि 'गरा लिखा जा चुका है। १५. (ख) जोड़। ५ काया