पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/३६

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. गोरख-बानी] १५ घटि घटि गोरष फिरै निरुता' । को घट जागे को घट सूता । घटि घटि गोरष घटि घटि मीन । आपा परचैगुर मुषि चीन्ह ॥३८॥ पावड़ियां पग फिलसै" अवधू लोहै छीजंत काया। नागा मूनी दूधाधारी एता. जोग न पाया ॥३९॥ दूधाधारी पर घरि चित ! नागा लकड़ी चाहै नित१० मोनी करै म्यंत्रकी आस । विन गुर गुदड़ी'२नहीं वेसास ॥४०॥ घट घट में गोरख बिना आहट के (बिना दूसरों के जाने) फिरता है। ब्रह्म प्रत्येक घर में विद्यमान है। किसी शरीर में वह जाग रहा है, किसी में सो रहा है। घट घट में गोरख हैं, घट घट में मीन (मत्स्येन्द्र ) हैं। गुरु और शिष्य में कोई भेद नहीं है। गुरु तो ब्रह्मवित् होता ही है, शिष्य भी उसके दिखाये मार्ग का अनुसरण कर ब्रह्मवित् अर्थात् ब्रह्म ही हो जाता है। गोरख अपने गुरु मीन के प्रभाव से कैवल्यपद को प्राप्त हुए हैं। गुरु के इसी महत्व को दिखाने के लिए यहाँ पर मीन का उल्लेख हुआ है। गुरु मुख शिक्षा से श्रात्म-परिचय (प्रारम- ज्ञान प्राह करो। निरूता=विना शब्द किये, बिना श्राहट, बिना दूसरों के जाने [ निः+रुति (शब्द, ध्वनि) ] ॥३८॥ हे श्रवधूत ! (शरीर को वश करने के बाहरी उपायों से योग सिद्धि नहीं होती।) पावड़ी पहनने वाला चलने में फिसल जाता है। लोहे की सांकलों से जकड़ने से शरीर नष्ट होता है। नागा, मौनी और केवल दूध पीकर रहने वाले, इतनों को योग-लाभ नहीं होता ॥३६॥ पयाहारी (बूध पर ही रहने वाले) का मन सदा दूसरे के घर रहता है, (सोचता रहता है, अमुक के यहाँ से दूध श्रा जाता तो अच्छा होता ) नागा शरीर को गरम रखने के लिए सदैव लकड़ी चाहता है। मौनी को एक साथी की जरूरत होती है, जो उसके बदले चोल कर मार्ग-देखा सके ॥४०॥ १. (ख) निरूपा । २. (ख) प्राचे । ३. (ग) गुर-मुघ । ४. (ख) चीन्ह; (ग) चीन्हि । ५. (ग), (घ) फिसलै रे। ६. (ख) (ग)(घ) छीजै। ७. (ग) (घ) मोनी। ८. (ग), (घ) तिनहूँ। ६. (क) पचिंत । (घ) पर घर । १०. (ख) न्यंति; (ग) न्यत; (घ) नित्त । ११. (क ) म्यत्र । (ग) मित्र । १२. बिना गुरू गोदड़ी (ख ) गोरष कहै पूता विन गुदड़ी (ग), (घ) बिना हि गुदड़ी । १३. (ख) बीसास; (ग) विसवास (घ) बिसवास ! .