पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गोरख-बानी] ३३ षोडस' नाड़ी चंद्र प्रकास्यारे द्वादस नाड़ी मान । सहस्र नाड़ी प्रांण का मेला, जहां असंघ कला सिव थांनं ॥३॥ अवधू ईडा मारग चंद्र भणीजै, प्यंगुला मारग भामं । सुषमना मारग११ बाणीं वोलिये त्रिय मूल अस्थांना २ ॥६४|| अबधू काया हमारी नालि बोलिये ४ दारू बोलिये पवनं।१५ अगनि पलीता अनहद गरज व्यंद१६ गोला उडि १७ गगर्न ५६५|| काजी मुलां कुरांण लगाया, बझ८ लगाया बेदं । कापड़ी संन्यासी तीरथर भ्रमाया न पाया नृबांण पद२१ का भेव ६६ षोदश कला वाली नाही (इला) में चंद्रमा का प्रकाश है, द्वादश वाली (पिंगला) में मानु का सहस्र नादी (सुषुम्ना अथवा) सहस्त्रार में प्राण का मूल निवास है, वहाँ असंख्य कलावाले शिव (ब्रह्मतत्व ) का स्थान है ॥ १३ ॥ ईडा नादी को चन्द्र कहते हैं, पिंगला को मानु और सुपुम्या को सरस्वती (वायो) ये ही तीनों मूलस्थान (ब्रह्मरंध्र तक पहुंचाते हैं)॥ १४ ॥ हे अवधूत ! यह शरीर नाली (बंदूक) है, पवन बारूद है, अमहद रूप भाग देने से धड़ाका होता है और बिंदु रूप गोला ब्रह्मरंध्र में चला जाता है अर्थात् साधक ऊर्ध्वरेता हो जाता है ॥ १५॥ काजी मुल्लाओं ने कुरान पढ़ा, ब्राह्मणों ने वेद, कापड़ी (गंगोत्तरी से १.(क), (ख) में 'षोडस' के पहले 'अवधू । २. (ख) प्रकासा । ३. (ख) भाण, (ग) भाण (भीण ?) (घ) भांण । ४. (ख) सहंसर; (ग) सहस । १. (ग), (घ) 'प्राण' के पहले 'जहाँ । ६. (ग) असादि । ७. (ख) इड़ी; (ग) इला, (घ) यला। ८. (क) मारग। ९. (घ) पिंगुला। १०. (ख) सुषमण । १४. (घ) मारगि। ११. (क) तृय ; (ख) त्रिया; (ग) त्रियं, (घ) त्रियो १२. (ख) सुथान, (ग) सथानं । १३. (क), (ख) हमारे । १४. (घ) बोलीये, (ग) में पहला 'बोलिय' दूसरा 'बोलीयं । १५, (ख) पवन""गीगन, (घ) पवना गगनं (घ) पवनां: गगनां । १६. (घ) विंद। १७. (ख), (ग), (घ) उड़िया । १८. (ख) ब्रह्मान, (ग) ब्राह्मण । (घ) ब्राहमणं । १६. सन्यासी (ख) सिन्यासी । (घ) सन्यासी । २०. (ग) तीरथा; (घ) तीरयां; (क), (ख), (घ) भ्रमाया । २१. (ग), (घ) तत ।