४६ [गोरख-बानी पेट कि अगनि बिबरजित दिष्टि की अगनि: षाया। ग्यांन गुरू का आगैं ही होता पणि५ बिरलै अवधू पाया ॥१३१॥ अगम अगोचर रहै निहकांम। भंवर गुफा नाहीं१० बिसराम११। जुगति न जाणे जागै राति । मन काहू के न आवै हाथि ।।१३२॥ नव१४ नाड़ी बहोतरि१५ कोठा । ए१६ अष्टांग१७ सब झूठा। कू'ची ताली सुषमन करै । उलटि जिभ्या ले तालु धरै ॥१३३॥ तय शरीर के भीतर महारस सिद्ध होता है। गोरख कहते हैं कि हमने चंचल (मन ) को पकड़ लिया है और शिव-शक्ति का मेल करके अपने घर में रहने लगे अर्थात् निज स्वरूप में पहुँच गये ॥ १३० ॥ (मैंने ) पेट की अग्नि (जठराग्नि) ले खाना वर्जित कर आँख की अग्नि से खाया, (ज्ञान दृष्टि से माया का भक्षण किया) यह गुरु का ज्ञान पहले ही से था (होता ), किन्तु किसी बिरने ही अवधूत ने उसे प्राप्त किया ॥ १३ ॥ अगम अगोचर (परमब्रह्म को प्राप्त करने के लिए) निष्काम रहना चाहिए। (किन्तु लोग) भ्रमर गुफा (ब्रह्मरंध्र ) में तो निवास करते नहीं, योग की युक्ति तो जानते नहीं, केवल रात में जागते रहते हैं । ( इसीलिए) मन किसी के हाथ नहीं आता, वश में नहीं होता ॥ १३२ शरीर में इतनी नादियों, इतने कोठे हैं, श्रादि-प्रादि अष्टांग योग का सब वाहय ज्ञान झूठा है । ( वास्तविक केवल ग्राम्यंतर अनुभूति है। ) सुपुम्ना के द्वारा ताली पर कुंजी करे अर्थात् ब्रह्मरंध्र का वेधन करे और जिह्वा को उलट फर तालु-मूल में रक्खे (जिससे सहस्रारस्थित चंद्र से नवित होने वाले अमृत का भास्वादन होगा) ॥ १३३ ॥ १. (ग) विरजित । २. (क) दृष्टि । ३. (ग) अगनि जु; (घ) अगनी जुग । ४. (ग), (घ) श्रागै । ५. (क) पनि (ग), (घ) में 'पणि' नहीं है, क्रमशः 'कोईर, 'कोऊ है। ६, (ग) विरला । ७. (क) अग्म । ८. (ग), (घ) है । ९. भ्रम । १०. (ख) नहीं। ११. (क) विश्राम । १२. (ख) जोग जुगति । १३. (ग) जाने। १४. (ग), (घ) नौ । १५. (क) बहतर; (ख), (घ) वहौतरि । १६. (ग), ये। १७. (ग) अष्टांग योग; (ख) अष्ठग योग; (घ) अष्टांग जोग । १८. (ख), (ग), (घ) ताला । १९. (ख) सुषमण । २० (क) जिहा; (ख), (उलटो) नीहा । २१. (ख) तालवे n