पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/८०

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१७ अरम 9 १२ गोरख-धानी] पढ़ि' देखि पंडिता ब्रह्म गियांनं । मूवां मुकतिर बैकुंठा थांनं । गाड्या जाल्या चौरासी मैं जाइ । सतिसतिभाषत(श्री) गोरषराह॥१६७ आकास तत सदा-सिव जाण । तसि अभिअंतरि पद निरबांण । प्यंडे परचा. गुरमुषि जोइ । बाहुडि आबा गवन न होइ ॥१६॥ धूरम ज्वाला जोति । सुरजि कला न छीपै छोति । कंचन कवल किरणि परसाइ । जल मल दुरगंध सर्व सुपाई ॥१६९॥ एकाकी रहने से अथवा सिद्ध की संगति में रहने से मनोमंग नहीं होता ॥ १६६ ॥ हे पंडित ब्रह्मज्ञान ही का अध्ययन-मनन करो। (क्योंकि ब्रह्मज्ञान के बिना सब झूठा है । ) मरने पर जो मुक्ति (मानी जाती है) उसमें वैकुंठ में स्थान मिलना ( कहा जाता है, परन्तु वस्तुतः ) वह गढ़े में अथवा चिता पर स्थान पाना है और चौरासी लाख योनि के चक्कर में पड़ जाना है। यह गोरखनाथ का सस्य बचन है॥१६॥ अाकाश तत्व ( शून्य मंडल; पंच भूतों में का श्राकाश तस्व नहीं) को सदाशिव (पूर्ण ब्रह्म) जानो । उसो में निर्वाण पद है । इसी शरीर में उसका परचा ( परिचय ) मिल जाता है। गुरु मुख से उसे प्राप्त करो (देखो) जिससे फिर आवागमन न हो।॥ १६॥ (तय ) ज्योति पूर्ण प्रज्वलित हो उठती है । सूर्यकला को छूत, (अध्यात्म को प्राधिभूत) छिपा नहीं सकती। स्वर्ण कमल (सहस्त्रार) को उसकी किरणे स्पर्श करने लगती हैं जो बल से मिलने वाले मल (पंक ) अर्थात् मायामय बिंदुप्रधान जल प्रकृति, दुर्गंध आदि सब को सोख लेती हैं ॥ १६६॥ १. (ग) परि । २. (घ) मुक्ति । ३. 'गाड्या' के पहले (ग) में 'नहीं तौः, और (घ) में 'नहीं है । ४. (घ) नाय "राय । ५. (ग), (घ) आकास का तत । ६. (ख), (घ) जांणी "निरवाणी। ७. (ग), (घ) तिस । ८. (ग) बाहुरन्यों; (घ) बाहुरयं । ६. (ग) उर । १०. (ग) सूरज । ११. (क) कृणि; (घ) में 'केवल किरणि' के स्थान पर 'का मैल की रहणि न' और; (ग) में 'का मैल किरणि न' पाठ है। १२. (ग) गंधि; (घ) गांधी । १३. (क) सर्व सोषाई; (ग) सरव सुषाई; (घ) सरवस पाई।