पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/८१

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het ११ 13 १४ १५ [गोरख-बार जोगी होइ पर निंद्या मष । मद मांस अरु भांगि? जो भषै इकोतरसै पुरिषा नरकहि जाई । सति सति भाषत श्रीगोरष राई१६ अवधू मांस भपंत दयाधरम का नास । मद पीवत तहां प्राण निरा भागि भपंत ग्यांन ध्यान षांचंत । जम दरबारी ते प्राणी रोवंत ॥१६ चालिबा पंथा के सींबा कथा । धरिबाध्यांनं के कथिबा ग्यांनं । एकाएकी सिध कै संग। बदंत गोरषनाथ पूता न होयसि मन भंग ॥ (सब में व्यतिकम हो जाता है।) सब तीर्थ (जिनकी संख्या ६८ मानी गई तो शरीर के भीतर ही हैं । हे भाई बाहर कहाँ भ्रमण करते भटकते हो ? ॥१६ जोगी होकर जो पराई निन्दा करता है, मद्य, मांस और भाँग खाता उसके इकहत्तर सौ पुरुषा नरक चले जाते हैं, गोरखनाथ यह सस्य स बोलते हैं ॥ १६४॥ हे अवधृतो! मांस खाने से क्या-धर्म का नाश होता है, मदिरा पीने प्राण में नैराश्य छाता है, भाँग का प्रयोग करने से ज्ञान-ध्यान खो जाता और ऐसे प्राणी यम के दरबार में रोते हैं ॥ १६५॥ या तो मार्ग में चलते रहना चाहिये, या कंथा सीते रहना चाहिये, ध्यान धरे रहना चाहिये, या ज्ञानोपदेश करते रहना चाहिये। (इस प्रकार १. (ख) अतीत । २. (ख), (घ) होय । ३. (क) प्रन्यंदा; (ग) निंद ४. (ग) में 'भांगि' के आगे 'न' भी है जो प्रसंग से गलत जान पड़ता है (घ) यकोतर सै पुरीया (१ षा); (ख) मनसा बाचा । ६. (ग) नरको; ( नरक मैं। ७. (घ) जायराय । ८. (क) सत्य सत्य । ९. (ग) भषते; ( भपंतां; (ख) षाया ते; चरण के प्रारम्भ में 'अवधू' नहीं । १०. तहां; (घ) पीवंता; (ख) पीवै ते । ११. (ख), (ग), (घ) भषंत ते । १२. ( में रोवंत' के पहले 'ऊभा' और (ख) में गढ़ा ('ठ' राज स्थानी लिपि इस ढङ्ग से लिखते हैं कि 'ठा' गलती से 'ग' पढ़ा जा सकता है ) आया (ग) में इस चरण का यह पाठ है-ते प्राणी जम द्वारे रोवत । (ख) में चरण के प्रारम्भ में 'बदंत गोरषनाथ है और 'ते के स्थान पर 'वे' हैं। (ग), (घ) कै चालिवा । १४. (ग) सीईवा; (घ) सीयवा । १५. (ग) धरिवा । १६. (क) में अंतिम दो चरण नहीं हैं। H (ग) पीक