पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५ ७ १२ 99 बिना सब मूठा . गोरख-बानी] पढि देखि पंडिता ब्रह्म गियांनं । मूवां मुकतिर बैकुंठा थांनं । गाड्या जाल्या चौरासी मैं जाइ । सतिसतिभाषत(श्री) गोरषरा॥१६७ आकास तत सदा-सिव जाण । तसि अभिअंतरि पद निरबांण । प्यंडे परचानें गुरमुषि जोइ । वाहुडि आबा गवन न होइ ॥१६८|| अरम धूरम ज्वाला जोति । सुरजि कला न छीपै छोति । कंचन कवल किरणि परसाइ । जल मल दुरगंध सर्व सुपाई ॥१६९।। एकाकी रहने से अथवा सिद्ध को संगति में रहने से मनोभंग नहीं होता॥ १६६ ॥ हे पंडित ब्रह्मज्ञान ही का अध्ययन-मनन करो। (क्योंकि ब्रह्मज्ञान के 1) मरने पर नो मुक्ति ( मानी जाती है) उसमें बैकुंठ में स्थान मिलना ( कहा जाता है, परन्तु वस्तुतः ) वह गढ़े में अथवा चिता पर स्थान पाना है और चौरासी लाख योनि के चक्कर में पद जाना है। यह गोरखनाथ का सत्य बचन है ॥१६॥ आकाश तत्व (शून्य मंडब; पंच भूतों में का श्राकाश तस्व नहीं) को सदाशिव (पूर्ण ब्रह्म) जानो। उसी में निर्वाण पद है। इसी शरीर में उसका परचा ( परिचय ) मिल जाता है। गुरु मुख से उसे प्राप्त करो (देखो) जिससे फिर आवागमन न हो ॥ १६ ॥ (तय ) ज्योति पूर्ण प्रज्वलित हो उठती है । सूर्यकना को छूत, (अध्यात्म को आधिभूत ) छिपा नहीं सकती। स्वर्ण कमल (सहस्रार) को उसकी किरणे स्पर्श करने लगती हैं जो बल से मिलने वाले मल (पंक ) अर्थात् मायामय विंदुप्रधान जल-प्रकृति, दुर्गध श्रादि सब को सोख लेती हैं ॥ १६६ ॥ १. (ग) परि । २. (घ) मुक्ति । ३. 'गाड्या' के पहले (ग) में 'नहीं तो, और (घ) में 'नहीं' है । ४. (घ) नायराय । ५. (ग), (घ) आकास का तत । ६.(ख), (घ) जांणी "निरवाणी। ७. (ग), (घ) तिस । ८. (ग) बाहुरन्थों; (घ) वाहुरथ । ६. (ग) उर । १०. (ग) सूरज । ११. (क) कृणि; (घ) में 'केवल किरणि' के स्थान पर 'का मैल की रहणि न' और; (ग) में 'का मैल किरणि न पाठ है। १२. (ग) गंधि; (घ) गांधी । १३. (क) सर्व सोषाई; (ग) सरव सुषाई; (घ) सरवस पाई।