पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/८३

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५८ [गोरख-बानी १२ 13 १४ १५ १६ घटि घटि सूण्यां२ ग्यांन न होइ । बनि बनि'चंदनरूष न कोइ3 रतन रिधि कवन कै होइ । ये तत बूझै बिरला कोई॥१७०॥ नीझर झरणे अंमीरस पीवणां घट दल बेध्या जाइ। चंद बिहूंणां चांदिणां तहां देष्या श्री गोरषराइ ।। १७१ ॥ कै मन रहै पासा पास । कै मन रहै परम उदास । कै मन रहै गुरू के ओले । कै मन रहै कॉमनि के षोले ॥ १७२ ।। सुनने मात्र से घट-घट (शरीर-शरीर ) में अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान नहीं हो जाता । वैसे ही जैसे बन-बन में चंदन का वृक्ष नहीं होता। रन और ऋद्धि अथवा रस्नमयो ऋद्धि किस को प्राप्त होती है ? यह तत्व कोई विरला ही समझ पाता है॥ १७०। (जहाँ) खूब मरने वाले मरने पर अमृत रस पीने को मिलता है वहीं नाकर गोरखराय ने चन्द्रमा के विना प्रकाश को देखा अर्थात् कारणरहित स्वतः-प्रकाश परब्रह्म का दर्शन किया ॥ १७१ ॥ ( मन का निरालम्ब रहना दुःसाध्य है, ) या तो वह (इस जगत् में) आशा के फंदे में बंधा रहता है या फिर परम उदास अर्थात् विरक्त अवस्था रहता । या तो मन कामिनी के क्रोड़ में (विश्राम लेता) रहता है (जप आशा के फंदे में बंधा रहता है) या गुरु की अोट (शरण ) में ही रहता है (गुरु की ही दया से वह परम विरक्ति लाभ करता है)। ओले, श्रोट में । खोले, क्रोड़ में ॥ १२ ॥ १.(क) घट घट "वनं बंन । २. (ख) कथ्या; (ग) में 'सुण्या' के आगे 'न' ३. (घ) पहला 'होई ...कोई, दूसरा 'होय'कोय' । ४. (ख) कोण कै; (ग), (घ) का कै; (ग) में इसके पहले 'कौ' और; (घ) में 'को हौ' है, जो 'कहाँ' का विकृत रूप है। ५. (ख) मोह । ६. (ग) तत्व । ७. (ख) चीन्है । ८. (ख), (ग), (घ) झरणां । ९. (ख) अम्रत । १०. (ख) मंधे। ११. (घ) नाय , (ख), (ग) जाई · राई । १२. (ख) चंदणा ; (ग), (घ) चांदणा । १३. (ख), (ग), (घ) में गोरष के पहले 'श्री' नहीं है १४. (ख) पासा। १५. (ग), (घ ) के ( कै-घ ) वोले । १६. (ख); (ग), (घ) कामणि, (ग) में अंतिम दो चरणों का स्थान बदला हुआ है। है -