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गोरा

i १०२ ] गोरा सारे शरीर में रोमांच हो पायां । एक छिपी हुई शक्ति उसकी नस-नसमें बिजलीकी तरह दौड़ गई । उसकी जवानीके एक अज्ञात अंशका पर्दा कुछ देर के लिए हट गया और उस – इतने दिनकी बन्द-कोठरीके भीतर इस शरत्कालिक निशीथ चन्द्रिकाने प्रवेश करके एक अपूर्व मायाका विस्तार कर दिया। चन्द्रमा किस समय पश्चिमकी ओर मुका, किस समय छतों से नीचे उतर गया यह इन दोनोंने नहीं जाना। देखते देखते पूरब की ओर आसमानमें सफेदी छा गई । तव विनयका जी कुछ हलका हुआ और मनमें कुछ लज्जा हुई । वह कुछ देर चुप रहकर बोला--मेरी ये बातें तुम्हारे समीप बड़ी तुच्छ है, तुम मन ही मन मेरी निन्दा करते होगे; किन्तु तुम्ही कहो मैं क्या करूँ, मैंने तुमसे कभी कोई बात छिपाई नहीं, आज भी कुछ नहीं छिपाया । तुम समझो या न समझो । ---विनय, मैं नहीं कह सकता कि मैं इन बातोंको ठीक- ठीक-समझ गया। दो दिन पहले तुम भी इन्हें नहीं समझते थे। इतनी बड़ी उम्र में श्राज तक ये आवेग और आवेश बड़े ही तुच्छ ज चते थे, इस बातको भी मैं अस्वीकार नहीं कर सकता । इससे मैं अब यह नहीं कह सकता कि यथार्थमें ही यह इतना तुच्छ विषय है। मैंने. इसकी शक्ति और गम्भीरताको कभी प्रत्यक्ष नहीं देखा, इसी कारण यह मेरे पास अपदार्थकी भाँति मिथ्या प्रतीत होता था । किन्तु तुम्हारे इतने बड़े अनुभव को मैं भूठ कैसे कहूँ ? असल बात यह है कि जो व्यक्ति जिस मंडलीके भीतर है, उस मंडलीके बाहरका सत्व पदार्थ यथार्थ यदि उसकी दृष्टिमें छोटा न जान पड़े तो उससे उसकी मंडलीका कोई काम नहीं हो सकता; वह कोई काम कर ही नहीं सकता। इसी लिए ईश्वरने दूरकी वस्तु मनुष्यकी दृष्टि में छोटी कर दी है । सम्पूर्ण सत्यके समान दिखाकर बह लोगों की महा विपत्ति में डालना नहीं चाहता। हम लोगों को कोई एक दिशा निर्दिष्ट कर उस ओर जाना ही होगा । एक साथ सब ओर दौड़ने की लालच छोड़नी होगी। नहीं तो-“एकै साधे संब सधे सब साधे सब गोरा ने कहा-