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गोरा

। गोरा [ १०५ गोरा के इस गम्भीर उत्साह का वेग विनय के हृदय में भी तरङ्गित होने लगा;---उसने अपने आपको बिना कुछ कहे-सुने गोराके आकर्षण में छोड़ दिया। गोरा और विनय दोनों पास ही चुपचाप धूमने लगे। पूर्व आकाशमें लालिमा छा गई। गोराने कहा -भाई, मैं अपनी देवीको जहाँ देख रहा हूं, वह सौन्दर्यके बीचकी जगह नहीं है। वहीं तो दुर्भिक्ष और दरिद्रताका निवास है, वहाँ केवल काट और अपमान भरा है । वहाँ गीत गाकर और फूल चढ़ाकर पूजा करनेसे क्या होगा ? वहाँ प्राण देकर पूजा करनी होगी। देवी की अराधनाके लिए बलिदान की आवश्यकता है । आत्म समर्पणको ही मैं सबसे बढ़कर पूजाका उपकरण समझता हूँ। इस प्रकारकी पूजामें मुझे जितना हर्ष होता है उतना और किसी में नहीं। वहाँ सुखके द्वारा भूलने की कोई सामग्री नहीं। वहाँ अपनी शक्ति भर जागना होगा [सब कुछ देना होगा। वहाँ माधुर्यका लेश नहीं, वहाँ एक दुर्जच दुःसह साहसका आविर्भाव है। इसके भीतर एक ऐसा कठिन झङ्कार है जिससे हाथ में एक साथ सातों सुर बोल उठते हैं और तार टूटकर गिर पड़ते हैं। इसके स्मरण मात्रसे मेरे हृदयमें उल्लास जाग उठता है। मेरे मनमें होता है, यह आनन्द ही पुरुष का आनन्द है-- यही जीवन का ताण्डव नृत्य है। पुरातन प्रबल यज्ञकी अग्निशिखाके ऊपर नई अद्भुत मूर्ति देखने ही के लिए पुरुषार्थ साधन की आवश्यकता है । रक्तिमा भरे आकाश क्षेत्रमें एक बन्धन रहित ज्योतिर्मय भविष्यत्को मैं देख रहा हूं। देखो मेरे हृदयके भीतर कौन डमरू बजा रहा है- यह कहकर गोराने विनयका हाथ लेकर अपनी छाती के ऊपर दबा रक्खा । विनय ने कहा- मैं तुम्हारे ही साथ चलूँगा। किन्तु मैं तुमसे कहता हूं कि मुझे कभी किसी ओर बहकने मत देना । तुम जिधर जानो उधर सुझे मी, विधाता की तरह, निर्दय होकर खीचें लिए चलो । हमारा का मार्ग एक ही होगा किन्तु मेरी और तुम्हारी शक्ति तो बराबर नहीं है। ।