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गोरा

गोरा ही उसका वाहन होकर कालेज की परिक्षान्नों में अपने पीछे खीचखाँच कर उसे पार कर लाया है। उस समव गोरा कह रहा था—जो मैं कहता हुँ, सो सुनों । अविनाश ब्रह्मसमाजियों की निन्दा करता था, उससे यह समझ पड़ता है कि वह खूब सुस्थ स्वाभाविक अवस्था में है। तुम उसकी इस हरकत से एकाएक इस तरह पागलों की माफिक बिगड़ क्यों उठे। विनय-कैसा आश्चर्य है । मैं तो यह ख्याल भी अपने मनमें नहीं ला सकता था कि इस सम्बन्ध में कोई प्रश्न चल सकता है। गारा |-अगर यह बात है तो तुम्हारे मनमे कुछ दोष हो गया है। एक दल के लोग समाज के बन्धन को तोड़कर सत्र विषयों में उल्टी चाल चलेंगे, और समाज के लोग अविचलित भाव से उनके प्रति सुविचार करेंगे, यह स्वभावका नियम नहीं है। समाज के लोग उनके बारे में प्रान्त धारणा अवश्य ही धारण करेंगे, वे लोग सरलभाव से जो कुछ करेंगे, वह इनकी दृष्टि में अवश्य ही टेढा प्रतीत होगा। उनका मसा इनको बुरा ही जान पड़ेगा यही होना उचित है । इच्छा के अनुसार समाज को तोड़कर उसने निकल जाने के जितने दण्ड है, उन्हीं में यह भी विनय- मैं नहीं कह सकता कि जो स्वाभाविक है वही भला है। गोरा कुछ गर्म हो कर कह उटा-मुझे भले से कुछ काम नहीं है । पृथ्वी पर ऐसे भले अगर दो-चार आदमी हो तो रहें किन्तु बाकी सब स्वाभाविक ही बने रहें । मैं यही चाहता हूँ ! नहीं तो काम भी नहीं चलेगा जान भी नहीं बचेगी ! ब्रह्मसमाजी होकर वहादुरी दिखाने का शोक जिन्हें है उन्हें यह दुःख सहना ही होगा । जो ब्राह्म नहीं है वे उनके सभी कामों को भूल समझ कर उनकी निन्दा करेंगे ही। वे लोग भी अपनी बहादुरी पर छाती फुलाये घूमेंगे, और उनके प्रतिपक्षी भी उनसे पीछे पीछे उनकी वाहवाही की प्रशंसा के गीत गाते चलेंगे, यह मुमकिन नहीं । जगत् में ऐसा कहीं नहीं होता और अगर होता भी तो जगत् के लिए सुविधा न होती। ---