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गोरा

१२४ ] गोरा हो ? मैं कहता हूँ यह सर्वथा सत्य है कि हम लोग स्वादेशके अन्तर्गत स्त्रियों वाले आधे अंश को अपनी चिन्ता के भीतर यथेष्ट परिणाम में नहीं जाते । तुम्हारी ही बात मैं कह सकता हूँ, तुम औरतोंके बारेमें घड़ी भर भी रहीं सोचते—तुम देशको जैसे रमणी-रहित ही जानते हो । किन्तु इस तरहका जानना कभी टीक या सत्य जानना नहीं है। गोरा--मैंने जब अपनी माँको देखा, अपनी माँको जाना, तब अपने देशको सभी स्त्रियोंको उसी एक स्थान में देख लिया और जान लिया। कम से कम मेरी तो यही धारणा है। विनय -यह तो तुमने अपनेको भुलानेके लिये गढ़ कर एक बात कह भर दी है । घरके काजके भीतर घरका श्रादमी अगर घरकी औरतोंको अत्यन्त परिचित भावसे देखें तो यथार्थ देखना है ही नही--इस तरह यथार्थ देखना हो ही नहीं सकता मैं जानता हूँ कि अंगरेजों के समाजके साथ किसी तरहकी तुलना करते ही तुम आगबबूला हो उठोगे। इसीसे मैं तुलना करना नहीं चाहता । मैं नहीं जानता कि हमारी औरतें ठीक कितना और किस तरह समाज में प्रकट हो तो मर्यादा का उल्लघन न होगा, किन्तु यह तो स्वीकार ही करना होगा कि इस तरह औरतोंके प्रच्छन्न या ढके रहने से हमारा लदेश हमारे निकट अर्द्ध-सत्य बना हुआ है। वह हमारे हृदय में पूर्ण प्रेम और पूर्ण शक्ति नहीं दे पाता। गोरा--दिन और रात जैसे समय के दो भाग है वैसे ही पुरुष और स्त्री ये समाजके दो अंश हैं । समाजकी स्वाभाविक अवस्था में स्त्रियाँ रात्रि ही की तरह प्रच्छन्न होंगी-~~-उनके सभी काम निगूढ़ और एकान्तमें होंगे। किन्तु जहाँ समाज की अत्वमाविक अवस्था है वहाँ वह रातको जबरदस्ती दिन बना डालता है--वहाँ गैस जलाकर कल चलाई जाती है, रोशनी करके रात भर नाचना गाना होता है। उसका फल क्या होता है। फल यही होता हैं कि रात्रिका जो स्वाभाविक सन्नाटे का-एकान्त का काम है वह नष्ट हो जाता है, क्लान्ति बढ़ती रहती है, मनुष्य उन्मत्त हो उठता है ! औरतो को भी अगर ।