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गोरा

१३० गोरा जाति-भेद का कूड़ा और समाजके विकार जव मैं देख पाता हूँ, तभी तरह-तरह के संदेह प्रकट किया करता हूँ | किन्तु गौर बाबू कहते हैं कि "बड़ी वस्तुको छोटा करके देखने से ही संदेह उत्पन्न होता है; वृक्षकी टूटी शाखा और सूखे पत्तों को ही वृक्षकी चरम प्रकृति मानकर देखना बुद्धि की असहनशीलता है। मैं टूटी हुई शाखा की प्रशंसा करनेको नहीं कहता; किन्तु मेरा कहना यह है कि तुम समग्र वनस्पतिको देखा और उसका तात्पर्य समकझने की चेष्टा करो। सुचरिता ने कहा -वृक्षके सूखे पत्तों पर ध्यान न दिया जाय न सही, किन्तु वृक्षके फलको तो देखना होगा। जाति-भेद का फल हमारे देशक लिए कैसा है? विनय-- आप जिसे जातिभेद का फल कहती है वह अवस्थाका फल है, केवल जाति भेदका फल नहीं है । हिलते हुए दाँतसे किसी चीजको चबाने में जो ब्यथा होती है, उसमें सब दातोंका कोई अपराध नहीं है; वह अपराध केवल हिलते हुए दाँतका ही है। अनेक कारणांसे हन लोगों में अनेक विकार और दुर्बलता का प्रवेश हो गया है; इसीसे हम भारतवर्ष के उद्देश्य को सफल न बना कर विकृत करते हैं। गौर बाबू इसी कारण वरावर कहते हैं । वस्थ होश्रो सवल होयो । सुचरिता--अच्छा तो फिर आप क्या ब्राह्मण-जातिको नर-देव मानने के लिये कहते हैं ? आप क्या सचमुच यह विश्वास करते हैं कि ब्राहाणके पैरों की धूल से मनुष्य पवित्र होता है ? विनय-पृथ्वीतल पर अनेक सम्मान ही तो हमारी अपनी सृष्टि है। ब्राझएको यदि हम यथार्थ ब्राह्मण वना दे सके, तो क्या वह समाज के लिये साधारण लाभ होगा? हम नरदेव चाहते हैं ? हम अगर नरदेव को यथार्थ ही हृदय के साथ बुद्धि-पूर्वक चाहे, तो अवश्य नरदेव को पावेंगे। और, अगर मूढकी तरह आँखे मूंद कर नरदेवको चाहेंगे, तो जो सब अपदेवता सब तरह के दुष्कर्म करते रहते हैं, और हमारे मल्लकमें पैरों की धूल लगाना जिनकी जीविकाका उपाय या पेशा है,