पृष्ठ:गोरा.pdf/१३१

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गोरा

, गोरा [ १३१ उनका दल बढ़ाकर पृथ्वीका भार ही केवल बढ़ाते रहेंगे ! नुचरिता-अच्छा, यह आपके यथार्थ नरदेव क्या आज कल कहीं हैं ? मिल सकते हैं ? विनय-बीजके भीतर जैसे बृक्ष है, वैसेही वे भी भारतवर्ष के आंतरिक अभिप्राय और प्रयोजन के भीतर मौजूद हैं । अन्य देश बेलिंग्टनके समान सेनापति, न्यूटन के समान वैज्ञानिक, रथचाईल के समान लखपती चाहते हैं, किन्तु हमारा देश यथार्थ ब्राह्मण को चाहता है। वह ब्राह्मण, जिसे भय नहीं है, जो लोभको घृणा करता है, जो दुःखको सहन शक्ति से जीतता है, जो अभाव पर लक्ष्य नहीं करता जिसने अपने विशुद्ध चित्तको परब्रह्मसे लगा रक्खा है । जो अटल है, जो शान्त है, मुक्त है, उसी ब्राह्मण को भारतवर्ष चाहता है --बैसे ही ब्राह्मण को यथार्थ भाव से अव पावेगा, तमी भारतवर्ष होगा ! हम भारतवासी क्या राजाके आगे सिर मुकाते हैं, या अत्याचारोंका बन्धन अपने गले में डालते हैं ? हमारा सिर अपने ही भन्यके आगे झुका हुआ है, हम अपने लोन के जालमें जकड़े हुए है हम अपनी मूढ़तासे ही दासानुदास हैं ! ब्रामण तपस्या करें- ---उस भय से, लोमसे मूढ़ता हमें मुक्त करें--हम उनके निकटसे युद्ध नहीं चाहते, वाणिज्य नहीं चाहते, और उनसे हमारा और कोई प्रेयोजन नहीं है । परेश बाबू सब चुपचाप सुन रहे थे । वह धीरे धीरे कहने लगे - यह तो नहीं कह सकता कि मैं भारतवर्ष को जानता हूँ और यह भी निश्चय ही नहीं जानता कि भारतने क्या चाहा था, और किसी दिन उसे पाया था या नहीं; किन्तु प्रश्न यह है कि जो दिन बीत गये जो जमाना गुजर गया, उन्हीं दिनोंमें-उसी जमाने में क्या कभी कोई फिर लौट कर जा सकता है ? वर्तमान में जो सम्भव है, वहीं हम लोगों की साधनाका विषय है-अतीतकी अोर दोनों हाथ बढ़ा कर समय नष्ट करनेसे क्या कुछ काम हो सकता है! विनयने कहा--आप जो कुछ कह रहे हैं अक्सर मैंने भी अहीं सोचा और अनेक बार कहा भी है. गौर बाबू कहते हैं, हम अतीतको अतीत