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गोरा

। गोरा [ १३३ श्राचार का सभी तरह का संसर्ग, बिना किसी विचारके, छोड़ देना चाहते हैं, ऐसे लोग संसार में खूब सहज भावमे नहीं चल सकते-वे या तो ढोंग रखते हैं, और या हर काम में हद दर्जेकी ज्यादती करते हैं । समझते हैं सत्य दुर्बल है, और केवल कौशल करके अथवा जोर करके सत्यकी रक्षा करना जैसे कर्तव्यका अंग है। मेरे ऊपर सत्य निर्भर है, मैं सत्य पर निर्भर नहीं हूं. इस तरहकी जिनकी धारणा होती है। उन्हींको कट्टर कहते हैं । मेरी सदा ईश्वरसे यही प्रार्थना है कि चाहे ब्राह्म लोगों की सभा हो और चाहे देवमन्दिर हो, मैं सर्वत्र सत्य को सिर झुका कर बहुत ही सहजमें बिना विद्रोहके प्रणाम कर सकें- बाहर कोई बाधा मुझे उससे रोक न रख सके। परेश बाबूने इतना कह कर चुप चाप जैसे हृदयमें अपने मनका समाधान कर लिया। उन्होंने कोमल स्वरसे पूर्वोक्त जो शब्द कहें, उन्होंने इतनी देरकी सम्पूर्ण आलोचनाके ऊपर जैसे एक बड़ा 'तुर हुँ जा दिया -वह नुर केवल ऊपर कहीं गई कुछ बातोंका ही सुर नहीं, बल्कि परेश बाबूके अपने जीवनका एक प्रशांत गम्भीर तार ( उच्च ) सुर है। सुचरिता और ललिताके मुख पर जैसे अानन्द-मिश्रित - भक्तिकी दीप्ति उज्ज्वल प्रकाश डाल गई। विनय चुपका बैठा रहा । वह भी मन-ही-मन जानता था कि गोराके भीतर, उसके कामों में एक प्रचण्ड जबदती है-~- सत्यका प्रचार करने वालों को वाक्य मन और कर्ममें जो एक सहज और सरल शान्ति रहनी चाहिए, वह गोरामें नहीं है। परेश बाबू की बातें सुन कर उस खयालने उसके मन पर जैसे और भी स्पष्ट आघात किया। सुचरिता रातको आकर लेट रही, ललिता उसके पलंगांपर एक किनारे श्राकर बैठ गई । सुचरिता समझी, ललिताके मनके भीतर कोई बात निक- लने के लिए हलचल डाले हुए है। यह भी सुचरिता समझ गई कि वह घात विनयके ही सम्बन्धमें है इसीलिये सुचरिताने आप ही कहा -विनय वाचू, मुझे बड़े भले मालूम पड़ते हैं ।