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गोरा

१३४ ] गोरा ललिताने कहा -वह सिर्फ गौर बाबूकी बातें घुमा फिराकर कहते हैं न, इसीसे तुम्हें रचते हैं। सुचरिता इस कथनके भीतर छिपे हुये इशारेको समझ कर भी गल गई, जैसे समझी ही नहीं। उसने एक सरल भाव धारण करके कहा- यह तो सच है, उनके मुख से गौर बाबू को प्रत्यक्ष देख पाती हूं। ललिताने कहा- मुझे तो बिलकुल अच्छा नहीं लगता। सुचरिताने विस्मयके साथ कहा--क्यों ? ललिताने कहा—गोरा, गोरा, गोरा, दिन-रात सिर्फ गोरा ही गोरा ! मान लिया, उनके मित्र गोरा खूब बड़े और अच्छे आदमी हैं, अच्छी बात है. लेकिन वह खुद भी तो मनुष्य नुचरिताने हँसकर कहा - सो तो है ही, लेकिन उनके मनुष्यत्व में कमी क्या हुई ? ललिता- उनके मित्रने उनको इस तरह ढक लिया है वह अपने तई प्रकट नहीं कर सकते । जैसे किसीके सिर पर भूत सवार होगया हो । ऐसी दशा में मुझे उस मनुष्य पर भी क्रोध आता है, और उस भूत पर भी श्रद्धा नहीं होती। ललिताकी झल्लाहट देख कर सुचरिता चुपचाप हँसने लगी। - ललिताने कहा-दीदी; तुम हँ सती हो, लेकिन मैं तुमसे कहे देती हूँ, मुन्ने कोई इस तरह आच्छन्न कर रखने की चेष्टा करता, तो मैं एक दिन भी सह न सकती। मान लो तुम हो - लोग चाहे जो समझे तुमने मुझे अपने प्रभावसे आच्छन्न नहीं कर रक्खा है; तुम्हारी प्रकृति ही इस तरहकी नहीं है-तुम मुझे ढक रखनेकी चेष्टा नहीं करती, इसीसे मैं तुमको इतना चाहती और मानती हूं। अकल बात यह है कि बाबूजी से ही तुम्हें यह शिक्षा मिली है-वह हर एकको उसका स्थान छोड़ देते हैं । इस परिवारमें सुचरिता और ललिता दोनों परेश बाबूकी अनन्य भक्त हैं । “वाबूजी कहते ही उनकी छाती जैसे फूल उठती है।