पृष्ठ:गोरा.pdf/१३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
[ १३५
गोरा

3 . गोरा [ १३५ सुचरिताने कहा--बाबूजी के साथ भला कही और किसी की तुलना हो सकती है ? गगर चाहे जो कुछ कहो बहन, विनय बाबूमें बोलनेकी शक्ति बहुत विलक्षण हैं। वह खूब बोल सकते हैं। ललिताने कहा- विचार खास उनके हृदयके नहीं है, इसीसे वह उन्हें इस अद्भुत आलंकारिक ढंग से कहते हैं। वह अगर खास अपने हृदयके विचारोंको कहते, तो वह उनकी बातचीत खुब सहज और स्वभा- विक होती है । यह न जान पड़ता कि वह खूब सोच-सोच समाल-सँभाल करकह रहे है। मुझे तो ऐसी अद्भुत बातोंकी अपेक्षा वे सहज सरल स्वभाविक बातें ही बहुत अच्छी लगती है ! सुचरिता-खैर नाराज क्यों होती है बहन ? गौर मोहन बाबूकी बातें वास्तवमें विनयकी अपनी ही बातें है। दोनों अभिन्न हृदय मित्र हैं । ललिता-अगर ऐसा है, तो वह बहुत ही बुरा है । ईश्वरने क्या बुद्धि इसलिए दी है कि पराए विचारोंका बखान करें--पराई बातोंकी व्याख्या करें ? मुँह क्या इसलिए ईश्वरने बनाया है कि हम पराई बातोंको बहुत अच्छी तरह बनाकर वर्णन करें ? मुझे ऐसी अद्भुत बातें न चाहिए । सुचरिता-लेकिन वह तू नहीं समझ पाती कि विनय बाबू गौरबाबू पर लेहका भाव रखते हैं। दोनोंका मन मिला हुआ है-हृदय एक हो गया है? ललिता को जैसे असह्य हो उठा। वह कह उठी.-ना, ना, यह बात नहीं है-दोनोंके हृदयों सम्पूर्ण मेल नहीं है । असल बात यह है कि गोरा वाबू को बड़ा मानना, उनका अनुगमन करना विनय बाबूकी आदत में दाखिल हो गया है इसका उन्हें अभ्यास-सा हो गया है । यह उनकी गुलामी है, लेह नहीं है। वह जबरदस्ती यह समझना चाहते हैं कि गौर बाबू के मत से उनका मत ठीक मिलता है। प्रीति अगर होती है तो प्रीति-पात्रके साथ मतभेद रहने पर भी उसको कोई आँच नहीं पहुंचती । मनुष्य अन्धभक्त हुए बिना-भी आत्म त्याग कर सकता है, दूसरे को मान