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गोरा

। गोरा [ १४७ जब दोनों परेश बाबूके घर पहुँजे तब साँझ हो गई थी। छतके ऊपर वाले कमरेमें दिया जलाकर हारानबाबू अपना एक अंगरेजी लेख परेश वाबू को सुना रहे थे। यहाँ परेशबाबू एक उपलक्ष मात्र थे, असल में नुचरिताको सुनाना ही उनका उद्देश्य था । आंखों पर रोशनी न आने देने के लिए सुचरिता मुँहके सामने ताड़का पङ्खा किये टेवलके कुछ दूर एक तरफ चुप बैठी थी ! वह अपने स्वाभाविक सरल भाव से निबन्ध सुनने के लिए विशेष चेष्टा कर रही थी, किन्तु रह रहकर उसका-मन हठात् दूसरे ओर चला जाता था। इसी समय नौकर ने श्राकर जब गोरा और विनय के आने की खबर दी तव सुचरिता एकाएक चौंक उठी । वह कुरसीसे उठ खड़ी हुई उसे उठकर जाते देखकर परेश बाबूने कहा-सुचरिता कहाँ जाती हो ? बैठो, और कोई नहीं है, हमारे यिनय और गौरमोहन आ रहे हैं। कुत्ररिता सकुचाकर फिर बैठ गई। हारानवाबूके लम्ब अंगरेजो लखके पाठमें विघ्न पहुंचनेसे सुचरिताका जर्जा हलका हुया । गोरा के आनेकी बात सुनकर उसके मन में किसी प्रकारका उल्लास न हुआ हो सो नहीं, किन्तु हारानवाबू के सामने गोरा के आने से उसके मनमे एक तरहकी वेचैनी और संकोच मालूम होने लगा-दोनोमें पीछे झगड़ा न हो, यह सोचकर या अन्य किसी कारणसे, यह कहना कठिन है। गोराका नाम सुनते ही हारान बावूका मन उदास सा हो गया । गोराके नमस्कार का किसी तरह उत्तर देकर यह मुँह लटकाये बैठे रहें। हारान बाबू को देखते ही उसीके साथ बादविवाद करने के लिये गोराका जी फड़क उठा। वरदासुन्दरी अपनी तीनों लड़कियों को लेकर कहीं नेवते में गई थी। तय हो गया था कि शाम को परेश बाबू जाकर उन सबोंको ले अागे । परेशबाबूके जानेका समय हो गया है । ऐसे समय में गोरा और विनयके आ जाने से उनके जाने में बाधा हुई किन्तु अव अधिक विलम्ब करना उचित न समझकर वे सुचरिता और हागनवाबू के ।