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१५० ]
गोरा

१५० ] मोरा गोरा के सम्बन्धमें बालोचना करके सुचरिताने गोराको एक विशेष दल और विशेष मतका असाधारण मनुग्च मान लिया था । उसके द्वारा देशका कोई कल्याण साधन कभी हो सकता है, यही कल्पना केवल मन में कर ली थी। अाज सुचरिता उसके मुंहकी ओर एकाग्र मनसे देखते देखते समस्त दल, समस्त मन और समत उद्देशसे अलग कर गोराको केवल गौरमोहन समझने लगी । जैने समुद्र कोई प्रयोजन या व्यवहारकी अपेक्षा न रहकर चन्द्रमाको देखते ही बिना कारण आनन्दसे फूल उठता है उसी तरह अाज सुचरिता भी गोराको देखकर फूल उठी। मनुष्य के साथ मनुष्यकी अात्माका क्या सम्बन्ध है, इस ओर सुचरिता का ध्यान आकर्षित हुअा, और इस अपूर्व अनुभव से वह अपने अस्तित्वको एकदम भूल गई। हारान बाबू ने सुचरिताके मनका ये भाव समझ लिया। इसीसे तर्क में उसकी युक्ति जोरदार न होती थी। मन अधीर हो जानेसे बुद्धि भी मन्द पड़ जाती है। आखिर वह नितान्त धैर्य हीन होकर अपनी जगह से ऊ खड़े हुए और सुचरिता को अपनी परम आत्मीय की भाँति पुकार कर बोले---सुचरिता जरा इस कमरे में आनो, तुमसे एक बात करनी है। सुचरिता एकदम चौंक उठी । हारान दाबूके साथ हुचरिता का जैसा चिर-परिचय था उससे वह कभी उसको इस तरह पुकार नहीं सकते थे सो बात नहीं है । यदि और समय वह इस तरह पुकारते तो सुचरिता कुछ मन में न लाती । किन्तु आज गोरा और विनय के सामने उसने इस बात से अपने को अपमानित समझा । विशेष कर गोराने उसके मुँहकी और ऐसे भाव से देखा कि वह हारान वायूको इस अशिष्टता के लिए क्षमा न कर सकी । पहले तो जैसे उसने कुछ सुना ही न हो ऐसा भाव करके चुप बैठी रही। फिर हारान बाबू ने कुछ क्रोध भरे स्वर में कहा- सुचरिता, सुनती नहीं ! मुझे कुछ कहना है, एक बार इस कमरेके भीतर न आरोगी?