पृष्ठ:गोरा.pdf/१५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१५४ ]
गोरा

गोरा यह अनुरोध है कि अाप भारतवर्ष के भीतर अावें । इसके भले-बुरे व्यवहारों के बीच में खड़ी हो और यदि कोई त्रुटि देख पड़े तो भीतर से ही उसका संशोधन करलें । सबके साथ मिलकर एक हों। इसके बिरुद्ध खड़े होकर बाहर से कृस्तानी संसार में शामिल होकर रग रग में उस धर्म की दीक्षा पाने से इस हिन्दू मत का तत्व श्राप न समझ सकेगी। जव-तब इस पर चोट ही करेंगी, आपके द्वारा इसका कोई उपकार न हो सकेगा। गोरा ने कहा सही कि यह मेरा अनुरोध है किन्तु यह तो अनुरोध नहीं है, यह तो एक प्रकार की अाज्ञा है। वात ऐसी बलवती है और उसके भीतर एक ऐसी ताकीद है कि बह दूसरेकी सम्मतिकी अपेक्षा नहीं रखती है नुचरिता ने सिर नीचा किये ही सब सुना । इस प्रकार एक प्रेबल अाग्रह के साथ गोरा ने जो उसीको विशेष भावसे सम्बोधन करके ये बातें कहीं इससे सुचरिता के मन में एक आन्दोलन उपस्थित हुा । सुचरिताने अपना सब संकोच दूर करके बड़ी नम्रता के साथ कहा मैंने देशकी बात को कभी इस प्रकार महत्व भरे भावसे नहीं सोचा था । परन्तु मैं आपसे एक बात पूछती हूं-- धर्मके साथ देशका क्या सम्बन्ध है ? धर्म क्या देशसे भिन्न विषय नहीं है। गोराके कान में सुचरिताके कोमल कण्ठ का यह प्रश्न बढ़ाही नधुर लगा। सुचरिताको बड़ी-बड़ी आँखांके बीच वह प्रश्न और नी माधुर्वमय देख पड़ा । गोरा ने कहा-जिस धर्मको आप देशसे भिन्न विषय समझती है वह देशकी अपेक्षा कितना बड़ा है, यह अाप देशके भीतर प्रवेश करके ही जान सकती हैं। ईश्वरने ऐसे ही विचित्र भावमे अपने अनन्त स्वरूपको व्यक्त किया है। जो लोग कहते है कि सत्य एक है, केवल एक ही धर्म और उसके रूपको सत्य मानते हैं। वे अपने उस निणीत एक सत्यको ही मानते है। और सत्य जो अनन्त रूपमें परिणित है उसको वे मानना नहीं चाहते। वे ये नहीं जानते कि यह सत्य धर्म अनेक रूपोंमें विभक्त है। फिर वह बाहे किसी रूपमें हो, है सव सत्य ही । मैं आपसे सच कहता हूँ,