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गोरा

गौरा [ १५५ मारतवर्वको खुली खिड़कीकी राहसे आप सूर्य को अच्छी तरह देख सकती है, उसके लिए समुद्र पार जाकर ईसाईकै गिर्जाघरकी खिड़की में बैटने की कोई आवश्यकता नहीं। सुचरिताने कहा-आप यह कहना चाहते हैं कि भारतवर्षका धर्मतन्त्र एक विशेष मार्गसे ईश्वर की ओर ले जाता है। वह विशेषता क्या ? गोरा--विशेषता यही कि जो निर्विशेष ब्रहा है, वह विशेषके भीतर ही व्यक्त होता है। जो निराकार है उसके आकारका अन्त नहीं- वह हर दीर्घ, स्थूल और सूक्ष्मका अनन्त प्रवाह है । छोटोसे भी छोटा और बड़ोंसे बड़ा हैं । जो अनन्त विशेष है वहीं निर्विशेष हैं! जो अनन्त रूप है वही अरूप है, अर्थात् जिस रूपके परे कोई रूप नहीं । ब्रह्म व्यापक रूपसे सर्वत्र विद्यमान है । और देशों में ईश्वरको कुछ घट-बढ़ परिणामसे किसी एक सीमा-निबद्ध विशेषके भीतर रोक रखनेकी चेष्टाकी गई है। भारतवर्ष में भी ईश्वर को विशेषके बीच देखने की बात है, किन्तु यह देश उस विशेष को ही एक मान और सर्वोपरि नहीं गिनता । अनेक विषयामें एक यह भी विशेष है बस इतना ही। ईश्वर जो इस विशेषको भी अनन्तगुणसे अतिक्रम किए हुए है, यह वात भारतवर्षका कोई भक्त कभी अस्वीकार नहीं करता। सुचरिता--ज्ञानी अस्वीकार न करें परन्नु अज्ञानी ! गोरा-मैंने तो पहले ही कहा है कि अज्ञानी सनी देशामें सभी सत्य को विकृत मानेंगे ही। सुचरिता- हमारे देशमें वह विकार क्या बहुत दूर तक नहीं पहुँचा है ! गोरा हो सकता है। किन्तु उसका कारण है-धर्मका स्थूल और सूक्ष्म, भीतर और बाहर, शरीर और आत्मा, इन्हीं दोनों अङ्गोंकों मारनवर्ष पूर्ण मावसे स्वीकार करना चाहता ! इसलिए जो सूक्ष्मको ग्रहण नहीं कर सकते, वे स्थूलको ही कहते हैं और अज्ञानके द्वारा उस स्थूलके भीतर अनेक अद्भुत विकारों की कल्पना करते हैं । किन्तु जो रूप-अरूप दोनों में सत्य है, स्थूलमें भी और सूक्ष्ममें भी सत्य है, ध्यानमें h