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१५६ ]
गोरा

१५६ ] गोरा भी सत्य और प्रत्यक्षम भी सत्य है; उसको भारतवर्षने सब प्रकार मनसे. वचनसे और कर्मसे प्राप्त करनेकी अद्भुत और बहुत बड़ी चेष्टा की है। उसे हम लोग मूर्खकी भाँति अश्रद्धेव समझ यूरोपकी अठारहवीं शताब्दीके नास्तिकता आस्तिकता युक्त एक संकीर्ण शुष्क अङ्गहीन धर्म को ही एक मात्र धर्म कहकर ग्रहण करेंगे, यह कभी हो नहीं सकता । सुचरिताको देर तक चुप बैठे देख गोराने कहा-आप मुझे प्रतारक न समझे । हिन्दू धर्म के सम्बन्धमें कपटाचारी लोग, विशेष कर जो नये धर्मध्वजी हो उठे हैं वे, जिस भावसे बात करते हैं उस भावसे आप मेरी बातको ग्रहण न करें। भारतवर्ष के विविध प्रकाश और विचित्र व्यापारके भीतर मुझे एक गम्भीर और बहुत बड़ी एकता सूझ पड़ी हैं। मैं उस एकताके अानन्दमें पागल होगया हूँ। उस ऐक्यके आनन्द में ही भारतवर्षके भीतर जो लोग निपट मूर्ख है, उनके साथ मिलकर दस आदमियोंके बीच जमीन पर बैठने में कुछ भी संकोच नहीं होता! संकोच होगा ही क्या ? जिनकी दृष्ठि बहुत दूर तक नहीं पहुँचती है वे भलेही संकोच करें। जिनकी जैसी समझ है, वे वैसा समझते हैं । मैं अपने नारतवर्षके सभी लोगोंके साथ एक हूँ-वे सभी मेरे अात्माय हैं। भारतवर्ष के हम लोग सत्र एक । भारतवर्ष सबके लिए एक है । सब लोग इसी एक भारतभूमिकी सन्तान है। इसमें कोई सन्देह नहीं। गोराके सुदीर्घ काठ से निकाली हुई ये बातें घरके भीतर बढ़ी देर तक गूंजती रही। इन वातोंको सुचरिता भलि भांति न समझ सकी। बन्नुतः ये बातें उसके बखूबी समझने को थी भी नहीं। किन्तु अनुभव के प्रथम अस्पष्ट सच्चार का वेग बड़ा ही प्रबल होता है। मनुष्य जीवन चहारदीवारीके भीतर या किसी दलके बीच धिरा नहीं है। यह ज्ञान मानी सुचरिताके मनको दबाने लगा। इसी समय सीढ़ीसे आती हुई स्त्रियोंकी खिलखिलाहट सुन पड़ी। बरानुन्दरी और लड़कियोंकी लेकर परेश बाबू लौट आये । सीढ़ीसे ऊपर