पृष्ठ:गोरा.pdf/१६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१६२ ]
गोरा

२६२] गोरा माँको ही अपने जीवनकी समस्त भक्ति समर्पित कर उसकी पूजा करता था। भोजन के अनन्तर गोरा एक छोटी सी गठरीमें कुछ कपड़े लेकर और उसे विलायती मुसाफिरकी भांति पीठ पर वाँधकर वह माँके पास आया और वोला-माँ, मैं कुछ दिन के लिये बाहर घूमने जाऊँगा । अानन्दमयी--कहाँ जाओगे बेटा ? गोरा–यह मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता । श्रानन्दमयी ने पूछा----क्या कोई काम है। गोरा- काम तो वैसा कुछ नहीं है -यह घूमने को जाना ही काम समझो। अानन्दमयी को मन मार कर कुछ देर चुप देख गोराने कहा-मों मैं हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ, मुझे जाने से रोको मत । तुम तो मुझको जानती ही हो मैं सन्यासी हो जाऊँ, यह तो कभी हो नहीं सकता। मैं तुमको छोड़कर अधिक दिन कहीं रह नहीं सकता । गोराने माँ के निकट अपना प्रेम इस तरह अपने मुंह से कमी प्रकट नहीं किया था -इसीसे आज यह बात कह कर लज्जित हुआ। उस वातसे पुकलित होकर अानन्दमर्याने झट उसनी लजा दबा देने के लिए कहा-क्या विनय भी साथ जायगा ? गोराने स्वस्त होकर कहा-नहीं माँ, विनय न जायगा । यह देखो ! माँ के मनमें चिन्ता होती है कि विनय के न जाने से रास्ते में मेरे गोरा की कौन रक्षा करेगा ? अगर तुम बिनय का मेरा रक्षक समझती हो तो यह तुम्हारी भूल है । इस दफे सुरक्षित रूप में मेरे लौट आनेसे तुम्हारा भ्रम दूर हो जायगा। अानन्दमयी ने पूछा-बीच-बीच में खबर मिलेगी न ? गोरा—खबर न मिलेगी, वहीं निश्चय करलो । इसके बाद यदि खबर पात्रोगी तो विशेष हर्ष होगा। कुछ इर नहीं तुम्हारे गोराको कोई न लेगा । माँ तुम मुझे जितना चाहती हो उतना और कोई नहीं