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१७२ ]
गोरा

१७२ ] गोरा बनामीसे ही काम करनेका था । उसका नाम जाहिर होते ही वह बिगड़ उठी है । विनयने कहा-आपके फूलोका दावा मैं छोड़े देता हूं किन्तु इससे अाप यह न समझे कि इन फूलोके विषयमें मेरी कुछ भूल है। हम लोगोंके झगड़ेका निपटारा हो जानेके शुभ उपलक्षमें ये फूल मैं आपको- ललिता ने सिर हिलाकर कहा-हम लोगोंका विवाद ही क्या, और उसका निवटारा ही कैसा? बिनय तब तो ये सभी इन्द्रजालके खेल है ? विवाद भी झूट, फूल भी वही, और फैसला भी मिथ्या ? केवल सीपमें चाँदी का भ्रम, नहीं, सीप भी बिलकुल भ्रमात्मक ! अच्छा, अव यह कहिए कि मैजिस्ट्रेट साहबके घर पर जो अभिनय होने की बात हो रही थी वह भी क्या ललिता-वह भ्रम नहीं, वह सत्य ही है। किन्तु उस अभिनयके लिए झगड़ा कैसा? आप ऐसा क्यों समझते हैं कि इसमें आपको राजी करने ही के लिए मैंने आपके साथ कलह किया है और आपकी स्वीकृति होने ही से मैं कृतार्थ हो गई हूं। अगर आपको अमिनब करना अनुचित जान पड़ेगा तो किसीकी बातमें पड़कर आप उसे क्यों स्वीकार करेंगे ? यह कहकर ललिता वहाँ से चली गई । बात बिलकुल उलटी हो गई। बिनय क्या सोचकर आया था और क्या हो गया ! आज ललिता ने निश्चय कर रखा था कि मैं विनयके आगे अपनी हार स्वीकार कलगी और उससे ऐसा ही अनुरोध कर गी जिसमें अमिनब में योग न दे । कहाँ उसने यह बात सोच रक्खी थी, और कहां यह नई बात उठ खड़ी हुई जिससे परिणाममें फल ठीक उसका उलटा हुआ । विनयने सोचा, मेंने इतने दिन तक अमिनयके सम्बन्ध में जो विरुद्धता प्रकटकी थी, उसके प्रतिघातकी उत्तेजना ललिताके मन में कुछ रह गई है किन्तु वह सम- झती होगी, विनयने केवल अपरके मनसे मान लिया है किन्तु भीतर विरोध वनाहै, इसीस शायद ललिताके मनका लोन अभी तक दूर नहीं हुआ । ललिताको जो इस घटनासे इतनी ग्लानि हुई, इससे विनयको बड़ा दुख हुआ । उसने मन ही मन निश्चय किया कि अब मैं इस विषय