पृष्ठ:गोरा.pdf/१७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
[ १७३
गोरा

गोरा [ १७३ में परिहास बुद्धिसे भी कोई अालोचना न करूंगा; और ऐसी निष्टा और निपुणता के साथ इस काम को करूंगा कि कोई मुझ पर उदासीनताका दोष आरोपित न कर सकेगा। सुचरिता आज सवेरेसे ही अपने सोनेके कमरेमें अकेली बैठकर एक ईसाई धर्म ग्रन्थ पढ़नेकी चेष्टा कर रही थी अाज अभी तक वह अपने सवेरके नियमित काम नहीं कर सकी । घरका कोई काम करनेकी आज उसे इच्छा नहीं होती । पुल्लक पढ़ने में भी उसका जी नहीं लगता। पढ़ते-पढ़ते उसका ध्यान किसी दूसरी ओर चला जाता था! और वह क्या पढ़ गई है यह उसकी समझमें न आता था। फिर वह पाठके टूटे हुए सूत्रको पुनरावृत्तिसे जोड़ती और चंचलता के कारण अपने मन पर कुढ़ती थी। एक बार दूरसे कण्ठ-स्वर सुनकर उसे मालूम हुआ कि विनय बाबू आये है तब वह चौंक उठी और झट हाथसे किताब रखकर बाहर जाने के लिये ब्याकुल हो गई। अपनी इस चंचलतासे अपने ऊपर ऋद्ध होकर सुचरिता फिर किताब हाथमें ले कुरसी पर बैठ गई। विनयकी वाली फिर कहीं सुन न पड़े इसलिए वह दोनों कान वन्द करके पड़ने लगी । ऐसा कितनी ही बार हुआ है कि विनय पहले आया है, और गोरा उसके पीछे । आज भी ऐसा हो सकता है, यह सोचकर सुचरिता रह रह कर चकित हो उठती थी । गोरा पीछे पा न जाय, यही उसको भय था और नानेकी आशंका मी उसे कष्ट दे रही थी। विनयके साथ ऊपरके मनसे दो चार बातें होनेके बाद सुचरिता मनको छिपानेका और कोई उपाय न देख सतीशकी चित्र-संग्रह फाइल. लेकर उसके साथ चित्रोंके सम्बन्धमें आलोचना करने लगी। इधर विनय टेबल पर अपने लौटाये हुए कनेरके फूलोंके गुच्छेको देखकर लज्जा और क्षोभसे मन ही मन कहने लगा कि आखिर शिष्टताके ख्यालसे भी तो मेरे इन फूलोंको ले लेना ललिताको उचित न था । ।